Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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तृतीय कर्मम्य
के अलावा उद्योतचतुष्क उद्योतनामकर्म, तियंचगति, तियेचानुपूर्वी और तिर्यंचा का भी बन्ध नहीं होता है । क्योंकि ये कार प्रकृतियाँ तिर्यचप्रायोग्य हैं । पद्मलेश्या वाला तो उन तिर्यथों में उत्पन्न हो सकता है, जहाँ उद्योतचतुष्क का उदय होता है, किन्तु शुक्ललेश्या वाला इन प्रकृतियों के उदय वाले स्थानों में उत्पन्न नहीं होता है। अतएव उक्त १६ प्रकृतियाँ शुक्ललेश्या में बन्धयोग्य नहीं है अतः सामान्य से १०४ प्रकृतियों का बन्ध माना जाता है तथा मिथ्यात्व गुणस्थान में तीर्थंकर नामकर्म और आहारकद्विक के सिवाय १०१ प्रकृतियों का और दूसरे गुणस्थान में नपुंसक वेद, हुडसंस्थान, मिथ्यात्व और सेवार्त संहनन इन चार प्रकृतियों को पहले मिथ्यात्व गुणस्थान की बन्धयोग्य १०१ प्रकृतियों में से कम करने पर ६७ प्रकृतियों का बन्ध होता है। नपुंसकवेद आदि इन चार प्रकृतियों को कम करने का कारण यह है कि ये चारों मिथ्यात्व के सद्भाव में बंधती हैं, किन्तु दूसरे गुणस्थान में मिथ्यात्य का अभाव है । तीसरे से लेकर तेरहवें गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थान में कर्म प्रकृतियों का बन्ध जैसा बन्धाधिकार में बतलाया है, उसी प्रकार शुक्ललेश्या वालों के लिए समझ लेना चाहिए ।
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शुक्लश्या के बन्धस्वामित्व में नरकगति आदि तिर्यंचायु पर्यन्त १६ प्रकृतियों का बन्ध नहीं माना है । अतः यहाँ शंका है---
तत्वार्थभाष्य में 'पोतपद्मशुक्लेश्या द्वित्रियेषु 1 (अ० ४, सूत्र २३) शेषेषु सासकादिध्यासर्वार्थसिद्धा छुक्ल लेश्याः तथा संग्रहणी में. कम्पपिहले संताइस सुबकलंस हुति सुरा ( गाथा १७५) ।
प्रथम दो देवलोकों में तेजोलेश्या, तीन देवलोकों में पलेश्या और लान्तककरूप सर्वार्थसिद्धपर्यन्त शुक्ललेश्या बताई है । तो यहाँ प्रश्न होता है कि लान्सककल्प से लेकर सहस्रार कल्प पर्यन्त के शुक्ललेश्या वाले देव तिर्यंचों में भी उत्पन्न हो जाते हैं तो तत्प्रायोग्य उद्योतचतुष्क का बन्ध क्यों नहीं करते हैं तथा इसी ग्रन्थ की ग्यारहवीं गाथा में आनतादि देवलोकों के बन्धस्वामित्व