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बन्धस्वामित्व
के प्रसंग में 'आणाई उजोयस उहिया' आमतादि कल्प के देव उद्योतचतुष्क के सिवाय शेष प्रकृतियों का बन्ध करते हैं, ऐसा कहा है। इसका अर्थ यह हुआ कि सहस्रार कल्प तक के देव उद्योतचतुष्क का बन्ध करते हैं और यहाँ शुक्ललेश्या मार्गणा में बन्ध का निषेध किया है । इस प्रकार पूर्वापर विरोध है ।
श्री जीवविजयजी और श्री जयसोमसूरि ने भी अपने-अपने दावे में इस पूर्वापर विरोध का दिग्दर्शन कराया है।
इस कमंच के समान ही दिगम्बरीय कर्मशास्त्र में भी वर्णन है । दिगम्बरीय कर्मशास्त्र गोम्मटमार कर्मकाण्ड की गाथा ११२ में कहा है
कप्पिस्थीस् ण सिस्थ सदरसहारमोति तिरियकुगं ।
सिरिया ओगे यि लड़ी गतिय सदरचऊ ।' गोम्मटसार कर्मकाण्ड की इस गाथा में जो सहसार देवलोक तक का बन्धस्वामित्र कहा है, उसमें इस कर्मग्रन्थ की ग्यारहवीं गापा के समान ही उद्योतचतुष्क की गणना की गई है। तथा गोम्मटसार कर्मकाण्ड की गाथा १२१ में शुक्ललेश्या के बन्नस्वामित्व के कथन में भी उद्योतचतुक का वर्णन है। ___ अतः कर्मग्रन्थ और गोम्मटसार में बन्धस्वामित्व समान होने पर भी दिगम्बरीय शास्त्र में उपयुक्त विरोध नहीं आता है । क्योंकि
१. कल्पवामिनी स्त्रियों में तीर्थकरप्रकृति का बन्ध नहीं होता है और
लियंक तिक, तिथंचायु और उद्योत इन चार प्रकृतियों का बन्ध श्यलारसाहसार नामक स्वर्ग तक होला है। आनतादि में इन चार प्रकृतियों या बन्न नहीं होता है । अत: इन चार को सतार चतुष्पः ची काहसे हैं:
क्योंकि पातारयुगल तक ही इनका बन्ध होता है । २ सुबके सदरचउर्फ वामतिमबारसं च ण 4 अस्थि ।