Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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माना जाता है तथा पहले गुणस्थान में तीर्थङ्करताकर्म और आहारकटिक का बन्ध न होने से सामान्य से बन्धयोग्य १११ प्रकृ तियों में से ३ प्रकृतियों को कम करने पर १०८ प्रकृतियों का और दूसरे से सातवें गुणस्थान में कार के समान बन्धस्वामित्व है। अर्थात दूसरे में १०१, तीसरे में ७४. चौथे में ७७, पाँचवें में ६८, छठे में ६३ और सातवें में ५७ या ५८ प्रकृतियों का बन्ध होता है।
यद्यपि गाथा के संकेतानुसार पहले शुक्ललेश्या का बन्ध स्वामित्व बतलाना चाहिए । लेकिन सुविधा की दृष्टि से पहले तेजोलेश्या के बाद क्रमप्राप्त पद्मलेश्या का बन्धस्वामित्व बत लाते हैं ।
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पद्मश्या मे भी तेजोलेश्या के समान पहले मिथ्यत्व गुणस्थान से लेकर सात गुणस्थान होते हैं, किन्तु तेजोलेश्या की अपेक्षा पद्मलेश्या की यह विशेषता है कि इस लेश्या वाले तेजोलेश्या की नरकनवक के अतिरिक्त एकेन्द्रिय, स्थावर और आप इन तीन प्रकृतियों का भी बन्ध नहीं करते हैं। क्योंकि तेजोलेश्या वाले एकन्द्रिय रूप से पैदा हो सकते हैं, किन्तु पद्मलेश्या वाले नरकादि एवं एकेन्द्रिय में उत्पन्न नहीं होते हैं, इसलिए एकेन्द्रिय आदि तीन प्रकृतियों का भी बन्ध नहीं होता है | aage cover का बन्धस्वामित्व सामान्य रूप से १०८ प्रकृतियों का और पहले गुणस्थान में तीर्थंकरनामकर्म तथा आहारकद्विकका बन्न न होने से १०५ का और दूसरे से सातवें तक प्रत्येक गुणस्थान में इन्धाधिकार के समान ही प्रकृ तियों का बन्ध समझना चाहिए। दूसरे से लेकर सातवें गुणस्थान में बraयोग्य प्रकृतियों की संख्या ऊपर बतलाई जा चुकी है।
शुक्ललेश्या में पहले से लेकर तेरहवें गुणस्थान तक तेरह गुणस्थान होते हैं । पथलेश्या की अपेक्षा शुक्ललेश्या की यह विशेषता है freera की नहीं बंधनेयोग्य नरकगति आदि बारह प्रकृतियों
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