Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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तृतीय फर्मग्रन्थ
शुक्लेश्या पहले से तेरहवे गुणस्थान तक पाई जाती है। इसमें पालेश्या की अबन्ध्य बारह प्रकृतियों के अतिरिक्त उद्योत चतुष्क का भी बन्ध नहीं होने से सोलह प्रकृतियाँ सामान्य बन्ध में नहीं गिनी जाती हैं । इसलिए सामान्य रूप से १०४ प्रकृतियों का बन्ध होता है और विध्यात्वगुणस्थान में तीर्थकरनामकर्म और आहारafar के सिवाय १०१ का तथा दूसरे गुणस्थान में नपुंसक वेद, हुडसंस्थान, मिथ्यात्व और सेवा संहनन इन चार को १०१ में में कम करने से शेष ६७ प्रकृतियों का और तीसरे मे लेकर तेरहवें गुणस्थान तक गुणस्थानों के समान ही स्वामित्व समझना चाहिए ।
६५.
इस प्रकार avatarर्गणा का बन्धस्वामित्व बतलाने के बाद आगे की गाथा में भव्य आदि शेष रहो मार्गणाओं के स्वामित्व का कथन करते हैं
सव्वगुणभव्यसन्निसु ओह अभःवा असन्निमिन्समा । सासणि असन्नि सन्नि व कम्मभंगो अणाहारे ||२३|| गाथार्थ---- भव्य और संज्ञी मार्गणाओं में सभी गुणस्थानों में बन्धधिकार के समान बन्धस्वामित्व है तथा अभव्य और असशियों का बन्धस्वामित्व मिथ्यात्व गुणस्थान के समान है । सास्वादन गुणस्थान में असंज्ञियों का बन्धस्वामित्व संशी के समान तथा अनाहारकमार्गेणा का चन्वस्वामित्व कार्मणयोग के समान जानना चाहिए ।
विशेषार्थ - इस गाथा में भव्य व संज्ञी मार्गणा के भेदों में तथा prefer के भेद अनाहारक arer में स्वामित्व बत लाया है।
भव्य और संज्ञी - ये दोनों चौदह गुणस्थानों के अधिकारी हैं । इसलिए इनका बन्धस्वामित्व सामान्य से १२० प्रकृतियों का और गुणस्थानों की अपेक्षा मिथ्यात्व गुणस्थान में ११७, सासादन गुण