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तृतीय कर्मप्राय बन्ध नहीं कर सकता है। क्योंकि अनन्तानुबन्धी कषाय का बन्ध, उसका उदय, आयु का बन्ध और मरण इन चार कार्यों को सास्वादन सम्यवस्वी कर सकता है, परन्तु इनमें से एक भी कार्य उपशम सम्यादृष्टि नहीं कर सकता है। अतः उपशम सम्यक्त्व के समय आयुबन्धयोग्य परिणाम नहीं होते हैं। अतएव उपशम सम्यक्त्व के योग्य आठ गुणस्थानों में से चौथे गुणस्थान में उपम सम्मादृष्टि को देवायु और मनुष्यायु इन दो का वर्जन इसलिए किया कि उसमें इन दो आयुओं का बन्छ संभव है, अन्य आयुओं का बन्ध नहीं क्योंकि चौथे गुणस्थान में वर्तमान देव तथा नारक मनुध्यायु को और तिथंच तथा मनुष्य देवायु को ही बाँध सकते हैं । इसलिए सामान्य से बन्धाधिकार में जो चौथे गणस्थान में ७७ प्रकृतियों का बन्ध बतलाया गया है. उसके स्थान पर अपशम सम्म म्हष्टि ७५ प्रकृतियों का बन्ध करता है।
उपशम सम्यग्दष्टि के पांचवें आदि गुणस्थानों के बन्ध में केवल देवायु को छोड़ दिया है। इसका कारण यह है कि उन गुणस्थानों में केवल देवायु का बन्ध संभव है। क्योंकि पांचवें गुणस्थान के अधिकारी तिथंच और मनुष्य हैं और छठे एवं सातवें गुणस्थान के अधिकारी मनुष्य ही हैं, जो केवल देवायु का ही बन्ध कर सकते हैं । सामान्य बन्ध में से मनुष्यायु पहले ही कम की जा चुकी है । अतएव उपशम सम्यग्दृष्टि के देशविरत में ६६, प्रमत्तविरत मैं ६२ और अप्रमत्तविरत में ५८ प्रकृतियों का बन्ध होता है।
सारांश यह है कि उपशम सम्यक्त्व अन्थि भेदजन्य और उपशम श्रेणीपत के भेद दा प्रकार का है। उनमें से अधिभेदजन्य उपशम सम्यक्त्व में चौथे से सातवें तक और वेणीगत में आठवें से लेकर ग्यारहवें तक कुल आठ गुणस्थान होते हैं । इनमें से उपशम श्रेणीगत
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१. अणबन्धोदयमाउगबन्यं का च सासको कृष्ण ई ।
उत्रसमसमादिट्ठी चदाहमिमकषि नो कुगई ।।