Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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तृतीय कर्मग्रन्थ
द्रव्य के सम्बन्ध से आत्मा के जो शुभाशुभ परिणाम होते हैं, उन्हें लेश्या कहते हैं । कषाय उसकी सहकारी हैं । कषाय की जैसी जैसी तीव्रता होती है, वैसी वैसी लेश्याएँ अशुभ से अशुभतर होती हैं और कषाय को जैसी जैसी मन्दता होती है, वैसे-वैसे लेश्याएं विशुद्ध से विशुद्धतर होती हैं। जैसे कि अनन्तानुबन्धी कषाय के तीव्रतम उदय होने पर कृष्णश्या होती है और मन्द उदय होने पर शुक्ल लेश्या होती है ।
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कहीं-कहीं देवों और नारकों के शरीर के वर्णरूप लेश्या मानी हैं। क्योंकि उनकी अवस्थित होती है। उक सम्यक्त्व प्राप्ति मानी है। वहाँ द्रव्य की अपेक्षा कृष्णलेश्या भी मानी है और सम्यक्त्व की प्राप्ति शुभलेश्याओं में ही होती है। जब ऐसा है तो कृष्णलेण्या में रहने वाले जीव को सम्यक्त्व कैसे हो सकता है ? इसके लिए ऐसा माना जाता है कि द्रव्यलेश्या शरीर के वर्णरूप होती हैं किन्तु मratश्या उसमे free भी हो सकती है और उससे सातवें नरक के नारकों के सम्यक्त्व प्राप्ति के समय विशुद्ध भावलेश्या होती है, किन्तु द्रव्य से तो कृष्णलेश्या होती है अर्थात प्रतिविम्ब रूप से तेजोलेश्या सरीखी होती है। तात्पर्य यह है कि देव और नारकों की लेश्याएँ अवस्थित होती है, परन्तु शरीर के वर्णरूप द्रव्यलेश्याएँ होती है और भाव को अपेक्षा वे लेश्याएँ उस उस समय के भावानुसार होली है।
यहाँ यह विचारणीय है कि तीसरे कर्मग्रन्थ में कृष्ण, नील, कापोत - इन तीन लेश्याओं में मिथ्यात्वादि चार गुणस्थान और चौथे कर्मग्रन्थ में पद्मप्रतिसास उच्च' (गाथा २३३ द्वारा छह लेश्याएँ बतलाईं हैं। तो इसका समाधान यह है कि पूर्वप्राप्त ( पहले से पाये हुए) पाँचवें, छठे गुणस्थान वाल के कृष्णादिक तीन लेश्याएं हो सकती हैं, किन्तु कृष्णादिक तीन लेश्या वाले पाँचवां, छठा गुणस्थान प्राप्त नहीं कर सकते हैं । अतः इस दृष्टि से चार बर