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अन्धस्वामिय
गुणस्थानों में तो आयुबन्ध होता ही नहीं है। क्योंकि आपुबन्ध के साग्य अध्यवसाय सासवें गुणस्थान तक ही होते हैं और इन गुणस्थानों में भी ऐसे अध्यवसाय नहीं होते हैं कि जिनसे आयुवन्ध हो सके ! इसलिए कौथे से लेकर सातवें गुणस्थान में बन्धाधिकार के समान बन्ध न होने की बजाय चौथे में ७५. पाँचवें में ६६, छठे में ६२ और सातवें में ५८ प्रकृतियों का बन्ध समझना चाहिए।
इस प्रकार से सम्यक्त्वमार्गणा के भेद उपशम सम्यक्त्व सम्बन्धी विशेषता बतलाने के बाद अब आगे की दो गाथाओं में लेण्यामार्गणा का बन्धस्वामित्व बतलाते हैं
ओहे अठारसयं आहारदमण आइलेसति । तं तित्थोणं मिन्छे साणाइस सस्वहि ओहो ॥२१॥ तेऊ नरवनवणा उजोयचर नरयवार विण सुक्का ।
विणु नरमवार पम्हा अजिणाहारा इमा मिच्छे ॥२२॥ गाथार्थ आदि की तीन--कृष्ण, नील, कापोतलेश्याओं में आहारकद्धिक को छोड़ कर शेष ११८ प्रकृतित्रों का सामान्य बन्धस्वामित्व है। उनमें से मिथ्यारल गुणस्थान में तीर्थकर प्रकृति कम और सास्वादन आदि तीन गुणस्थानों में बन्धाधिकार के समान बन्छस्थाभिस्व समझना चाहिए 1 तेजोलेश्या का बन्धस्वामित्व नरकनवक के सिवाय अन्य सब प्रकृतियों का है तथा उद्योतचतुष्क एवं नरकद्वादश इन सोलह प्रकृत्तियों को छोड़कर अन्य सब प्रकृतियों का बन्ध शुक्ललेश्या में होता है तथा पालेश्या में उक्त नरकद्वादश के सिवाय अन्य सब प्रकृतियों का बन्ध होता है। मिथ्यात्व गुणस्थान में तेज आदि उक्त तीन लेश्याओं में बन्धस्वामित्व तीर्थकरनामकर्म और आहारकद्विक को छोड़कर समझना चाहिए। विशेषार्थ-इन दोनों गाथाओं में लेयामार्ग का बन्धस्वामित्व बतलाते हैं । लेश्याओं के छह भेद हैं-(१) कुष्ण, (२) नील, (३) कापोत, (४) तेज, (५) पदम और (६) शुक्ल । योगान्तर्गत कृष्णादि