Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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बन्छस्वामित्व
छह गुणस्थान कृष्णादि सीन लेश्या वालों के होने में कोई विरोध नहीं है। जैसे कि.
सम्मल सु सवार लइइ, सुद्धीस सि हय धारि ।
पुग्नदिवमओ पुष अन्नपीए ३ लेसाए । सम्यक्रव श्रुत सर्व लेश्याओं में होता है और चारित्र तीन शुभ लेण्याभों-तेज, पम और शक्ल में प्राप्त होता है तथा पूर्वप्रतिपन्न (सम्यक्त्वादि सामायिक, श्रुत सामायिक, देशबिरति सामायिक, सविरति चारित्र सामायिक ये पूर्व में प्राप्त हुए हों वैसे) जीब छह में से किसी भी लेश्या में होते हैं।
उक्त कृष्ण आदि का लेश्यालों में मा, नगर कापोटइन तीन लेश्या वालों के आहारकद्धिक का बंध नहीं होता है। क्योंकि आहारकदिक का बन्ध सातवें गुणस्थान के सिवाय अन्य गुणस्थानों में नहीं होता है तथा उक्त कृष्णादि तीन लेश्या वाले अधिक से अधिक छह गुणस्थानों तक पाये जाते हैं । अतएव उनके सामान्य से ११८ प्रकृतियों का और गुणस्थानों की अपेक्षा पहले गुणस्थान में तीर्थङ्कर नामकर्म के सिवाय ११७, दूसरे में १०१, तीसरे में ७४ और चौथे में ७७ प्रकृत्तियों का बन्ध माना है।
कृष्णादि तीन वेश्याओं में चौथे गुणस्थान के समय ७७ प्रकृतियों का बन्धस्वामित्व 'साणाइस सहि ओहो' इस कथन के अनुसार माना है और इसी प्रकार प्राचीन बन्धस्वामित्व में भी उल्लेख किया गया है
सुरनरमादयसहिया अविरयसम्माड होति यया ।
तिस्थपरेण जुयाः सह तेऊलेसे परं बोच्छं ।।४।। उक्त उद्धरण से यह स्पष्ट है कि कृष्यादि तीन लश्याओं के चतुर्थ गुणस्थान की ७७ प्रकृतियों में मनुष्यायु की तरह देवायु की गिनती हैं। इसी प्रकार गोम्मटसार कर्मकाण्ड में भी वेदमार्गणा से लेकर आहारकमार्गणा पर्यन्त सब मार्गणाओं का बन्धस्वामित्व गुण