Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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इम्घस्वामित्व
मिथ्या कर तेज नरोगि हानी गुम्मस् न राम रह गुणस्थान माने जाते हैं। इस मार्गणा में विद्यमान जीयों के सामान्य से तथा विशेष से अपने-अपने प्रत्येकः गुणस्थानों में बन्धाधिकार के समान बन्धस्वामित्व समझना चाहिए 1 जैसे कि बन्धाधिकार में सामान्य मे १२० प्रकृत्तियों का बन्ध बताया गया है. बैग ही आहारमागंणा में भी १२० प्रकृतियों का तथा गुणस्थानों की अपेक्षा पहले में ४१७, दूसरे में १७१. तीसरे में ७४, चौथे में ७, पाँचवें में ६५, छठे में ६३, सातवें में ५६ या ५८, आठवें में ५८।५.६।२६, नौवें में २२॥२१॥ २०।१६।१८, दसवें में १७, क्यारहवें में १. बारहवें में १. और तेरहवें में १ प्रकृति का बन्ध समझना चाहिए। __ सारांशा यह है कि सम्यक्त्व के औपमिक. क्षायोपशामिक और शायिक तीन भेद हैं। उनमें से औषामिक सम्यक्त्व, उपशम भाव चौथे से लेकर ग्यारहवं गुणस्थानपर्यन्त आठ गुणस्थान तक रहता है। इसलिए उपशम सम्यक्त्व मार्गणा में आठ गुणस्थान माने जाते हैं । उपआम सम्यक्त्व के समय आयुबन्ध नहीं होता है, अत: सामान्य की अपेक्षा ७५ प्रकृतियों का बन्ध होता है ।
वेदक सम्यक्त्व क्षायोपशमिक सम्यक्त्व) चौथे से लेकर सात गुणस्थान तक चार गुणस्थानों में होता है । इसके बाद श्रणी प्रारंभ हो जाती है और श्रेणी दो प्रकार की हैं.- उपशम श्रेणी और क्षापक श्रेणी । अतः क्षायोपथमिक सम्यक्त्व में चौथे से लेकर सातवें गुणस्थान तक चार गुणस्थान होते हैं। इसमें आहारकटिक का बन्ध होना संभव है। इसलिए इसका सामान्य से बन्धस्वामित्व ७६ प्रकृतियों का और गुणस्थानों की अपेक्षा बन्ध्राधिकार के समान चौथे से लेकर सातयें गणस्थान तक का बन्धस्वामित्व समझना चाहिए ।
क्षायिक सम्यक्त्व चौथे गुणस्थान से प्रारम्भ होकर चौदहवें गुणस्थान तक ग्यारह गुणस्थानों में पाया जाता है। इसमें भी पनि का retiremannary