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तृतीय कर्मग्रन्थ
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६७, प्रमत्तविरत में ६३, अप्रमत्तविरत में ५६ या ५८. अपूर्वकरण में ५८५६३२६. अनिवृत्तिकरण में २२६२११२०११६६१८, सूक्ष्मसंपराय में १७ तथा उपशान्तमोह, क्षीणोइ. सयोगिमस्थान में ११ प्रकृति का बन्ध समझना चाहिये और अयोधि गुणस्थान प्रबन्धक होता है।
मिथ्यात्वत्रिक यानी मिथ्यात्व, सास्वादन और मिश्रदृष्टि में तीनों सम्यक्त्व मा के अवान्तर भेद हैं। इनमें अपने अपने नाम वाला एक-एक गुणस्थान होता है । अर्थात् मिथ्यात्व में पहला मिथ्यात्व गुणस्थान, सास्वादन में दूसरा सास्वादन गुणस्थान और मिश्रदृष्टि में तीसरा मिश्र गुणस्थान होता है । अतएव इन तीनों का सामान्य व विशेष बन्धस्वामित्व इन-इन मुणस्थानों के बन्धस्वामित्व के समान ही समझना चाहिए । अर्थात् सामान्य और विशेष रूप से मिथ्यात्व में ११७, सास्वादन में १०१ और मिश्र गुणस्थान में ७४ प्रकृतियों का बन्धस्वामित्व होता है।
देशविरत और सूक्ष्मसंपराय ये दो संयममार्गणा के भेद हैं और इन दोनों संयमों में अपने अपने नाम वाला एक-एक गुणस्थान होता है। यानी देशविरति संयम केवल पांचवें मुशस्थान में और सूक्ष्मसंपराय केवल दसः गुणस्थान में होता है । अतएव इन दोनों का बन्धस्वामित्व भी अपने-अपने नाम वाले गुणस्थान में बन्धाधिकार के समान हो है 1 अर्थात् सामान्य और विशेष रूप से देशविरति का बन्धस्वामिस्थ ६७ प्रकृतियों का और सूक्ष्मसंपराय का बन्धस्वामित्व १७.प्रकृतियों का है। ... “समय-समय जो आहार करे उसे आहारक (आहारी) कहते हैं । जितने भी संसारी जीव हैं, वे जब तक अपनी-अपनी आयुष्य के कारण संसार में रहते हैं, अपने-अपने योग्य कमों का आहरण करते रहते हैं। गुणस्थानों की अपेक्षा पहले गुणस्थान से लेकर तेरहवें
गुणस्थान पर्यन्त के सभी जीव आहारक हैं और इन सब जीवों का : अहण आहारमार्गणा में किया जाता है। अतएव इसमें पहले