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तृतीय कर्मपन्य
में सामान्य और गुणस्थानों की अपेक्षा बलस्वामित्व का कपन किया जा चुका है। अब आगे की गाथा में सम्यक्त्व मार्गणा तथा संयम मार्गणा के शेष भेदों और आहारक मार्गणा में बन्धस्वामित्व बतलाते हैं
अड उपसमि चउ व्यगि खइए इकार मिच्छतिगि से। सुमि सठाणं तेरस आहारगि नियनियगुणोहो ॥१६॥ re:- -उपशम सन्यारव' म मा दा दायोपशमिक सम्यक्त्व में चार, क्षायिक सम्यक्त्व में ग्यारह, मिथ्यात्वत्रिक और देशचारित्र, सूक्ष्मसंपराय संयम में अपने अपने नाम वाले एक-एक गुणस्थान होते हैं तथा आहारक मार्गणा में तेरह गुणस्थान होते हैं और सामान्य से अपने-अपने गुणस्थान के समान बन्ध समझना चाहिए। शिवायं- इस गाथा में सम्यक्त्व मार्गणा के उपशम, वेदक (क्षायोपमिक), क्षायिक, मिथ्यात्व, सास्वादन और मिथ तथा संयम मार्गणा के देशविरत, सूक्ष्मसंपराय एवं आहारक मार्गणा का बन्धस्वामित्व बतलाया गया है।
उपशमणि को प्राप्त हुए अथवा अनन्तानुबन्धी कषायचलष्क और दर्शनमोहत्रिक को उपमित करने वाले जीवों को उपशम सम्यक्त्व होता है। यह उपश्चम सम्यक्त्व अविरत सम्यक्त्व के सिवाय देशविरति, प्रमत्तसंयतविरति या अप्रमत्तसंवतविरति गुणस्थानों में तथा इसी प्रकार आठवें से लेकर ग्यारहवें तक चार गुणस्थानों में वर्तमान उपशम श्रेणी वाले जीवों को रहता है। इसी कारण इस सम्यक्त्व में चौथे से लेकर ग्यारह गुणस्थान तक कुल आठ गुणस्थान कहे गये हैं।
इस सम्यक्त्व के समय आयु का बन्ध नहीं होता है । इससे चौथे गुणस्थान में देव और मनुष्यायु इन दोनों का बन्ध नहीं होता है .. और पांच अदि गुणस्थान में देवायु का बन्ध नहीं होता है।