Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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तृतस्य कर्म प्राय
में होता है, और वह बन्ध सिर्फ सातावेदनीय का होता है। इसलिए इन दोनों में सामान्य से और गुणस्थान की अपेक्षा बन्छस्वामित्व एक ही प्रकृति का है। ___मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिद्विक–अवधिज्ञान और अवधिदर्शन इन चार मार्गणाओं में पहले के तीन मुशस्थान तथा प्रतिम दो गुणस्थान नहीं होते हैं । अर्थात् और विचार बारह क्षीणकषाय गुणस्थान तक नौ गुणस्थान होते हैं। आदि के तीन गुणस्थान न होने का कारण यह है कि ये चारों सम्यक्त्व के होने पर यथार्थ माने जाते हैं और आदि के तीन गुणस्थानों में शुद्ध सम्यक्त्व नहीं होता है तथा अन्तिम दो गुणस्थान न होने का कारण यह है कि उनमें क्षायिक ज्ञान होता है. क्षायोपशमिक नहीं है इसलिए इन चारों में चौथे से लेकर बारहवं गुणस्थान तक कुल नो गुणस्थान माने जाते हैं। इन चारों मार्गणाओं में भी आहारकाद्विक' का बन्ध संभव होने से सामान्य में १६ प्रकृत्तियों का और गुणस्थानों की अपेक्षा चौथे से लेकर बारहवें गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थान में बन्धाधिकार के समान बन्धस्वामित्व समझना चाहिए । अर्थात् चौथे गुणस्थान को बन्धयोग्य ७७ प्रकृतियों में आहारक शरीर और आहारक अंगोपांग --- इन दो प्रकृतियों को और जोड़ने से सामान्य की अपेक्षा ७६ प्रकृतियों का बन्ध होता है और गुणस्थानों की अपेक्षा चौथे में ३७, पांचवें में ६७, छठे में ६३, सातवें में ५६१५८, आठवें में ५५६१२६. नौ में २सरश२०११६१८, दसवें में १७, ग्यारहवें में ?. बारहवें में प्रकृति का बन्ध समझना चाहिए।
सारांश यह है कि मनःपर्याय ज्ञानमार्गणा में छठे से लेकर बारहवे गुणस्थानपर्यन्त सात गुणस्थान होते हैं और इसमें आहारकद्विक का बन्ध संभव होने से सामान्यतया ६५ प्रकृतियों का और गुणस्थानों की अपेक्षा बन्धाधिकार के समान छठे से लेकर बारहवें गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थान में बन्ध समझना चाहिए।