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मृतीय कर्मप्रग्य
त्रिक, दर्शनमार्गणा के दर्शन और अचक्षुशन में बन्धस्वामित्व का कषन करने के बाद आगे की गाथा में संयममार्गणा और शानमार्गणा के मतिज्ञान आदि भेदों में बन्प्रस्वामित्व बतलाते हैं---
रणनाणि सग जयाई समय छेय उ कुन्नि परिहारे । केवलिगि दो घरमाऽअयाइ नब मइसुमोहिदुगे ॥१८॥ गाभार्थ- मनःपर्याय ज्ञान में प्रमत्तसंयत आदि अर्थात् छठे से लेकर बारहवें गुणस्थानपर्यन्त सात तथा सामायिक और छेदोपस्थानीय चारित्र में प्रमत्तसंयत आदि चार गुणस्थान एवं परिहारविशुद्धि चारित्र में प्रमत्तसंयत आदि दो गुणस्थान होते हैं । केवलद्विक में अन्तिम दो गुणस्थान तथा भतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिनिक में अविरत सम्यग्दृष्टि से लेकर नौ मुणस्थान होते हैं। विशेधार्थ.....? स गाथा में ज्ञानमागंणा के भेदों .. मनःपर्यायज्ञान, मतिज्ञान, अ तशान. अवधिज्ञान, केवलज्ञान, संयममागंणा के सामायिक, छेदीपस्थानीय और परिहारविशुद्धि चारित्र. दर्शनमार्गणा के अवधिवर्शन और केवलदर्शन में बन्धस्वामित्व का कथन किया गया है। इनका विशद अर्थ गाथा में बताये गये क्रम के अनुसार किया जाता है।
मनःपर्यायज्ञान में छठे गुणस्थान-प्रमससंयत से लेकर क्षी कषायपर्यन्त सात गुणस्थान होते हैं । यद्यपि मनःपर्यायज्ञान का आविर्भाव सातवें गुणस्थान में होता है, परन्तु इसकी प्राप्ति के बाद मुनि प्रमादवश छछे गुणस्थान को भी प्राप्त कर सकता है तथा इस ज्ञान के धारक मिथ्यात्व आदि पाँच गुणस्थानों में वर्तमान नहीं रहते हैं तथा यह क्षायोपशमिक होने से अंतिम गुणस्थान ... तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में नहीं रहता है, क्योंकि क्षायिक अवस्था में क्षायोपशामिक स्थिति रहना असंभव है। इसलिए मनःपर्याय शान में छठे से लेकर बारहब गुणस्थान तक माने जाते हैं। इसमें आहारक