Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
View full book text
________________
७१
तृतीय कर्मच
से तीन गुणस्थान होते हैं। जबकि feaनेक आचार्य मिश्रमोहनीय पुद्गलों में मिथ्यात्वमोहनीय के पुदगल अधिक हों तो अज्ञान अधिक और ज्ञान अल्प तथा सम्यक्त्वमोहनीय के पुद्गल अधिक हों तो ज्ञान अधिक और अज्ञान अल्प ऐसा मानते हैं से
ज्ञान का लेश-अंश मिश्र गुणस्थान में मानते हैं। इसलिए उस अपेक्षा से अज्ञानत्रिक में प्रथम दो गुणस्थान ही होते हैं। (यह कथन जिनrecite safeा की टीका में किया गया है | इस प्रकार से दो अथवा तीन गुणस्थान कर्मग्रन्थकारों के मतानुसार होते हैं ।
ज्ञानमार्गणा के अज्ञानत्रिक का बन्धस्वामित्व यहां बतलाया गया है। शेष मतिज्ञानादि पाँच भेदों का avatarfire आगे बतलाया जायगा | अब दर्शन मार्गेणा के भेद चक्ष दर्शन और अक्षदर्शन का बन्धस्वामित्व बतलाते हैं ।
A
क्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन इन दो दर्शनों में पहले से लेकर बारह गुणस्थान होते हैं। क्योंकि ये दोनों क्षायोपrfमक भाव हैं और क्षायोपशमिक भाव बारह गुणस्थान पर्यन्त होते हैं। अतः इनका स्वामित्व सामान्य रूप से तथा प्रत्येक गुणस्थान में बन्धाधिकार के समान है। अर्थात् बन्धाधिकार में जैसे सामान्य से १२० और गुणस्थानों में पहले में ११७ आदि गुणस्थान के क्रम से लेकर बारहवें गुणस्थानपर्यन्त बन्ध बतलाया गया है. इसी प्रकार चक्षुदर्शन और अक्षदर्शन मार्गणा में बन्ध समझना चाहिए।
यथाख्यात चारित्र अंतिम चार गुणस्थानवर्ती जीवों में होता है | अतः ग्यारहवें से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक- ये चार गुणस्थान होते हैं। चौदहवें गुणस्थान में तो योग का अभाव होने से बन्ध होता ही नहीं है । किन्तु ग्यारहवें आदि तीन गुणस्थानों में बन्ध के कारण योग का सद्भाव होता है । अतः योग के निमित्त से बँधने वाली सिर्फ एक प्रकृति - सातावेदनीय का बन्ध होता है। इसलिए इस चारित्र में सामान्य और विशेष से एक प्रकृति का स्वामित्व समझना चाहिए।