Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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तृतीय कर्मग्रन्थ
है कि सम्यक्त्व भी हो जाये किन्तु चारित्र का पालन नहीं हो सके। अतः इसमें आदि के चार गुणस्थान होते हैं और चौधे गुणस्थान में सम्यक्त्व होने के कारण तीर्थक्षरनामकर्म का बन्ध संभव है, परन्तु आहारकद्विक का बन्ध संयमसापेक्ष होने से इनका बन्ध नहीं होता है। इसलिए अविरति में सामान्य रूप से आहारकद्विक के सिवाय ११८, पहले गुणस्थान में ११७, दूसरे में १०१, तीसरे में ७४ और चौथे गुणास्थान में ७७ प्रकृतियों का बन्ध होता है।
ज्ञानमार्मणा में ज्ञान और अज्ञान-दोनों को माना जाता है । इनमें मतिः श्रुत, अवधि, मनःपर्याय और केवलज्ञान ये मान के पांच भेद हैं। इनमें मति, श्रुत और अवधिज्ञान विपरीत भी होते हैं। अर्थात-अज्ञान के मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान और अधांध-अज्ञान... ये तीन भेद होते हैं। ज्ञानमार्गणा के इन आठ भेदों में से यहाँ अशानत्रिक का बन्धस्वामिस्क बतलाते हैं।
अज्ञानत्रिक में आदि के दो या तीन गुणस्थान होते हैं। इनके सामान्य बन्ध में से तीर्थकरनामकर्म और आहारकद्विक ये तीन प्रकृतियों कम कर देना चाहिए। क्योंकि अज्ञान का कारण मिथ्यात्व है और इन अज्ञानत्रिक में मिथ्यात्व का सद्भाव रहता है, जिससे सामान्य से तथा पहले गुणस्थान में ११७, दूसरे में १०१ और तीसरे में ७४ प्रकृतियों का बन्धस्वामित्व समझना चाहिये।
अज्ञानत्रिक में दो या तीन गुणस्थान माने जाने का आश्य यह है कि तीसरे गुणस्थान में वर्तमान जीव की दृष्टि सर्वथा शुद्ध या अशुद्ध नहीं होती है, किन्तु शुद्ध कुछ और कुछ अशुद्ध तथा किसी अंश में अशुद्धमिश्र होती है । इस मिश्रइष्टि के अनुसार उन जीवों का ज्ञान भी मिश्र रूप-किसी अंश में ज्ञान रूप तथा किसी अंश में अज्ञान रूप माना जाता है । जब उसमें शुद्धता अधिक होती है, तब दृष्टि की शुद्धि की अधिकता के कारण और अशुद्धि की कमी के कारण १ मतिश्रुतावधयो विषय पश्च ।
तस्वार्थपून, १९३२