Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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গ্রাফি संजलगलिगे नव इस लोभे घउ अनइ छ ति अनाणतिगे। बारस अचक्खुचक्खुमु पढमा अखाइ चरमच ॥१७॥ गाथार्थ-संज्वलनत्रिक (संज्वलन क्रोध, मान, माया) में नौ गुणस्थान और गौर संजना जोन में स्थान होते हैं तथा अविरति में चार, अज्ञानशिक (मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान, विभंगशान) में दो या तीन और अचक्षुदर्शन, चक्षुदर्शन में आदि के बारह और यथाख्यातचारित्र में अन्त के चार गुणस्थान होते हैं । अतः उक्त मार्गणाओं में बन्छस्वामित्व बन्धाधिकार में बताये गये अनुसार सामान्य से और गुणस्थानों में समझना
चाहिए।
विशेषार्थ-कषायमार्गणा के अन्तिम भेद संज्वलन कषाय के क्रोध, मान, माया, लोभ इन चार भेदों में से क्रोध, मान और माया में नो और लोभ में दस गुणस्थान होते हैं । अतः इन चारों कषायों का बन्धस्वामित्व सामान्य रूप से और विशेष रूप से गुणस्थानों के समान ही हैं। अर्थात् मज्वलन क्रोध, मान, माया का उदय नौन्हें गुणस्थान तक होता है, अतः उनका बन्धस्वामित्व जैसा बन्धाधिकार में गुणस्थानों की अपेक्षा बतलाया गया है, उसी प्रकार समझना चाहिए । यानी सामान्य से १२० और गुणस्थानों में पहले से लेकर । मौवें गुणस्थान तक क्रमशः ११७, १०१, ७४, १७७. ६७. ६३, ५६, ५८ और २२ प्रकृतियों का समझना चाहिए।
संज्वलन लोभ में एक से लेकर दस गुणस्थान होते हैं, अतः इसमें नौवें गुणस्थान तक तो पूर्वोक्त संज्वलनत्रिक के अनुसार बन्ध- . स्वामित्व समझना चाहिए और दसवें गुणस्थान में १७ प्रकृतियों का बन्ध होता है। ___संयममार्गणा में सामायिक आदि संयम के भेदों के साथ संयम प्रतिपक्षी असंयम-अविरति को भी माना जाता है । अतः संयम मार्गणा के भेदों के बन्धस्वामित्व को बतलाने के पहले असंयम अधिरति में बन्धस्वामित्व का कथन करते हैं । अविरति का मतलब