Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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बधस्वामित्व
पहले गुणस्थान में ११७. दूसरे में १०१, तीसरे में ७४ और चौथे में ५५७ प्रकृतियों का बन्ध समझना चाहिए ।
प्रत्याख्यानावरण कषायों का उदय पांचवें गुणस्थानपर्यन्त होता है 1 अतः इनमें पहले से लेकर पनवं गुणस्थान पर्यन्त पनि गुणस्थान माने जाते हैं । यद्यपि इन कपायों के समय सर्वविरति चारिश न होने से आहारकद्धिक का नन्ध नहीं हो सकता है, तथापि सम्यक्त्व होने से तीर्थङ्करनामकर्म का बन्ध हो सकता है। इसलिए सामान्य रूप से ११८ और पहले गुणस्थान में ११४, दूसरे में १०१, तीसरे में १४, चौथे में ७७ और पांच में १६७ प्रकृतियों ६७ बन्ध जानना चाहिए।
कषायमार्गणा में गदि अनन्तानुबन्धी आदि संञ्चलमपर्यन्त की अपेक्षा से प्रत्येक का अलग-अलग बन्श्वस्वामित्व का कथन न कर कोच. मान, माया और लोभ ----इन सामान्य भेदों में मुण्यस्थान का कथन किया जाये तो क्रोध, मान, माया--में तीन कषाय नौवें गुणस्थान के क्रमशः दूसरे. तीसरे और चौथे भाग पर्यन्त तथा लोभः कषाय दसवें गुणस्थान तक रहता है इस अपेक्षा से यदि गुणस्थान मान जायें तो कषायमामणा में पहले में लेकर दसवें गुणस्थान पर्यन्त दस गुणस्थान होते हैं और उनका बन्धश्वामित्व बन्धाधिकार के अनुसार समझना चाहिये । लेकिन ग्रन्थकार ने यहां कषाय मार्गणा में अनन्तानुबन्धी आदि की अपेक्षा में उनका गुस्थानों में इन्धस्वामित्व का कथन किया है। ___ सारांश यह है कि वैकिय काययोग में बन्धस्वामित्व देवगति के समान, अर्थात् सामान्य से १०४ एवं गुणस्थानों में पहले में १०३, दूसरे में ९३. तीसरे में 5 और चौथे में ७२ प्रकृत्तियों का है और वैक्रियमिध काययोग में तिर्यंचायु और मनुष्यायु इन दो प्रकृतियों का बन्ध नहीं होने से इनके बिना शेष प्रकृतियो का बन्ध वैक्तिय काययोग के समान समझना चाहिए। जिसका अर्थ यह है कि क्रिय मित्रयोग में सामान्य से बन्धयोग्य १०२ प्रकृतियां हैं तथा यह योग
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