Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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ततीय कर्मप्रन्य
योगमागंणा के बन्धस्वामित्व का कथन करने के बाद अब वेद और कषायमार्गणा के अनन्तानुबन्धी, अप्रत्यास्थानावरण और प्रत्याख्यानावरण कषाय भेदों का बन्धस्वामित्व बतलाते हैं ।
वेद के तीन भेद हैं-पुरुषवेद, स्त्रीवेद और नमकवेद । इन तीनों प्रकार के वेदों का उदय नौवें गुणस्थान तक ही होता है।' अर्थात् वेद का उदय नौवें गुणस्थानपर्यन्त ही होता है, इसलिए वेद का बन्धस्वामित्व वधाधिकार की तरह नौ गुणस्थानों जैसा मानना चाहिए । अर्थात् जैसे बन्धाधिकार में सामान्य से १२०, पहले गुणस्थान में ११७, दूसरे में १०१, तीसरे में ७४. चौथे में ७७. पांचवें में १७, छठे में ६३, सातवे में ५६-५८, आठय में ५८, ५६ तथा २६ और नौ में २२ प्रकृतियों का बन्ध बतलाया है, उसी प्रकार वेदमार्गमा वाले जीवों का बन्धस्वामित्व समझना चाहिए। ___ अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय पहले, दुसरे-दो गुणस्थानों में ही होता है। इससे इस कषाय में उक्त दो ही गुरुस्थान माने जाते हैं। उक्त दो गुणस्थानों के समय न तो सम्यक्त्व होता है और न चारित्र । अतः तीर्थरनामकर्म (जिसका बन्ध सम्यक्त्व से ही होता है और आहारकद्विक (जिनका बन्ध चारित्र से ही होता है), ये तीन प्रकृतियां अनन्तानुबन्धी कषाय वालों के सामान्य बन्ध में वर्जित हैं । अतएव अनन्तानुबन्धी कषाय वाले सामान्य से तथा पहले गुणस्थान में ११७ और दूसरे में १०१ प्रकृतियों का बन्ध्र करते हैं।
अप्रत्याख्यानावरण क्रोधादि कषायों का उदय पहले चार गुणस्थानपर्यंत होता है। अत: इनमें पहले चार गुणस्थान होते हैं । इन कषायों के समय सम्यक्त्व का संभव होने मे तीर्थकरमाम का बन्ध हो सकता है। लेकिन चारित्र का अभाव होने से आहारकद्विक का बन्ध नहीं होता है । अतएव इन कषायों में सामान्य से ११८ और
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