Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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तृतीय कर्मग्रन्थ
अपर्याप्त अवस्था में होने से तीसरा गुणस्थान नहीं होता है ! अतः पहले गुणस्थान में १०१. दूसरे में १६ और चौथे में ७२ प्रकृतियों का बन्ध होता है।
वेब का उदय नौवें गुणस्थान तक होता है । अतः बन्धाधिकार में कहे गये अनुसार ही सामान्य से और नौवें गुणस्थान तक बताये गये प्रकृतियों के बन्ध के अनुसार समझना चाहिए।
कषायमार्गणा में अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय पहले और दूसरे गुणस्थान तक होता है, अतः गुणस्थानों की अपेक्षा बन्ध तो बन्धाधिकार में बताये गये बन्ध के समान ही होता है, लेकिन सामान्य से १२० की बजाय ११७ का बन्ध होता है, क्योंकि इस काय वाले को सम्यक्रम और चारित्र नहीं होने से तीर्थङ्करनामक और आहारकद्विक का हार नहीं होता है। ___ अप्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय चौथे गुणस्थान तक होता है और इस कषाय के समय सम्यक्त्व संभव होने से तीर्थकरनामकमं का बन्ध हो सकता है। अतः सामान्य से बन्धयोग्य ११८ प्रकृतियां है और गुणस्थानों में बन्धाधिकार के समान ११७, १०१, ७४ और ७७ प्रकृतियाँ समझना चाहिए।
प्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय पाँचवें गुणस्थानपर्यन्त होता है । अतः इसमें पहले से लेकर पांचवें लक पाँच गुणस्थान होते हैं। इस कषाय के रहने पर सम्यक्त्व हो सकता है, लेकिन सर्वविरति चारित्र न होने से आहारकद्विक का बन्ध नहीं होने से सामान्य रूप से ११८ प्रकृतियों का बन्ध होता है और गुणस्थानों में क्रमशः ११७, १०१, ७४, ७७ और ६७ प्रकृतियों का बन्धस्वामित्व
अब आगे को गाथा में कषायमार्गणा की शेष रही संज्वलन कषाय तथा संयम, ज्ञान और दर्शन मार्गणा के बन्धस्वामित्व का कथन करते हैं