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सारांश यह है कि कषायमागंणा के चौथे भेद संज्वलन कोध, मान, माया और लोभ में से क्रोध, मान, माया नौवें गुणस्थान तक रहती है । अत: इन तीनों के पहले से लेकर नो गुणस्थान होते हैं तथा लोभ दसवें गुणस्थानपर्यन्त रहता है। अतः इनका बन्धस्वाfere सपनों के अनुसार
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समझना चाहिए ।
संयममार्गणा के भेद अविरति में आदि के चार गुणस्थान होते हैं। चौथे गुणस्थान में सम्यक्त्व होने के कारण तीर्थकर नामकर्म का बन्ध संभव है, परन्तु आहारकद्विक का वध संयसापेक्ष होने से नहीं होता है । अतः अविरति में सामान्य से आहारकद्विक के सिवाय १८ प्रकृतियों का तथा गुणस्थानों में में १०१, तीसरे में ७४ और चौथे में ७७ होता है ।
पहले में ११७. दूसरे प्रकृतियों का बन्ध
अज्ञानत्रिक में दो या तीन गुणस्थान होते इसलिए इसके सामान्य बन्ध में से तीर्थकुरनामकर्म और आहारकद्विक इन तीन प्रकृतियों को कम कर लेना चाहिए। अतः सामान्य से और पहले गुणस्थान में १७७, दूसरे में १०१ और तीसरे में ७४ प्रकृतियों का Tatarfara समझना चाहिए ।
चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन-- इनमें आदि के बारह गुणस्थान होते हैं और इनका बन्धस्वामित्व सामान्य से एवं गुणस्थान की अपेक्षा गुणस्थानों के समान समझना चाहिए।
यथाख्यात चारित्र में ग्यारह से चौदह अंतिम चार गुणस्थान होते हैं और चौदहवें गुणस्थान में योग का अभाव होने से बन्ध नहीं होता और शेष तीन- ग्यारह बारह और तेरह इन तीन गुणस्थानों में सिर्फ एक सातावेदनीय का बन्ध होता है ।
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इस प्रकार कषायमार्गणा के संज्वलनचतुष्क और संयममार्गणा के अविरति और यथाख्यात चारित्र, ज्ञानमार्गणा के अज्ञान