Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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बन्धस्वामित्व
मिश्रज्ञान में ज्ञान की मात्रा अधिक होती है और अज्ञान की मात्रा कम होती है, तब इस प्रकार के मिश्र ज्ञान से युक्त जीवों की गिनती शानी जीवों में भी की जा सकती है. लेकिन वह है अशान हो। इस दृष्टि से उस समय पहले और दूसरे दो गुणस्थानों में जीव को ही अशानी समझना चाहिए।
परन्तु जब दृष्टि में अशुद्धि की अधिकता के कारण मित्रज्ञान में अज्ञान की मात्रा अधिक होती है और शुद्धि की कमी के कारण झान की मात्रा कम तब उस मिश्रज्ञान को अज्ञान मानकर मिश्र शानी जीवों की गिमती अज्ञानी जीवों में की जाती है । अतएव उस समय पहले, दूसरे और तीसरे.. इन ती गुमाका सन्यासी और को अज्ञानी समझना चाहिए।
उक्त दोनों स्थितियों का कारण यह है कि जो जीव मिथ्यात्व गुणस्थान से तीसरे गुणस्थान में आता है, तब मिश्रदृष्टि में मिव्यात्वांश अधिक होने से अशुद्धि विशेष होती है और जब सम्यक्त्व छोड़कर तीसरे गणस्थान में आता है, तब मिश्रदृष्टि में सम्यक्त्वांश अधिक होने के शुद्धि विशेष रहती है। इसीलिए अज्ञानत्रिक में दो या तीन गुणस्थान माने जाते हैं।
यहाँ अज्ञानत्रिक में दो या तीन गुणस्थान मानने विषयक मतान्तर का दिग्दर्शन किया गया है। कर्मग्रन्धकार सास्वादन को अज्ञान ही मानते हैं। पहले गुणस्थान में मिथ्यात्य मोहनीय का उदय होने से अज्ञान ही है और बाकी रहा मिश्र, वहाँ भी मोहनीयकर्म का उदय होता है। वहाँ यथास्थित तत्व का बोध नहीं होने से : कितने ही आचार्य अज्ञान रूप ही मानते हैं। क्योंकि पंचसंग्रह में कहा है मिश्र में ज्ञान से मिश्रित अज्ञान ही होते हैं, शुद्ध ज्ञान नहीं . होते हैं। यहाँ शुद्ध सम्यक्त्व की अपेक्षा से ही ज्ञान माना गया है। यदि अशुद्ध सम्यक्त्व वाले को शान मानें तो सास्वादन को भी शान मानना पड़ेगा। किन्तु कर्मग्रन्थकारों को यह इष्ट नहीं है, क्योंकि कर्मग्रन्थ में सास्वादन को अज्ञान होता है, ऐसा कहा है । इस अमेक्षा
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