Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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सामान
द्विक का भी बन्ध संभव है। इसलिए इस ज्ञान में सामान्य रूप से ६५ प्रकृतियों का तथा छठे से लेकर बारहवें मुणस्थानपर्यन्त प्रत्येक गुणस्थान में बन्धाधिकार के समान हो प्रकृतियों का बन्धस्वामित्व समझना चाहिए। अर्थात मनःपर्यायज्ञानमार्गणा में सामान्य से ६५ प्रकृतियों का और छठे से लेकर बारहवें गुणस्थान तक छठे में ६३, सातवें में ५.६।५८, आठवें में ५८५६।२६. नौवे में २२१२११२०११६ १८, दसवें में १७, म्यारहवें में १, बारा में १ प्रकृति का बन्ध समझना चाहिए।
सामायिक और छंदोपस्थानीय ये दो संयम छठे, सातवें, आठवें और नौवें इन चार मुणस्थानों में पाये जाते हैं । इन संयमों के समय आहारकद्विक का बन्ध होना भी संभव है । अतः सामान्य से ६५ प्रकृतियाँ बन्धयोग्य हैं और गुणस्थानों की अपेक्षा छठ आदि प्रत्येक गुणस्थान में बन्धाधिकार के समान ही बनध समदरना चाहिए। अर्थात छठे में ६३, सातवें में ५६३५८, आठवें से ५८:५६२६, नौचे में २२१२११२०।१६।१८ प्रकृतियों का बन्ध होता है।
परिहारविशुद्धि संयमी सातवें गुणस्थान से आगे के मुणस्थानों को नहीं पा सकता है। अतः यह संयम सिर्फ छठे और सातवें गुणस्थान में ही होता है। इस संयम के समय यद्यपि आहारकद्विक का उदध नहीं होता, क्योंकि परिहारविशुद्धि संयमी को दस पूर्व का भी पूर्ण ज्ञान नहीं होता और आहारकद्धिक का उदय चतुर्दशपूर्वधर के संभव है । तथापि इसको आहारकद्विक का बन्ध संभव है। इसलिए बन्धस्वामित्व सामान्य रूप से ६५ प्रकृतियों का और मुणस्थानों की अपेक्षा बन्धाधिकार के समान, अर्थात् छठे गुणस्थान में ६३ और सातवे में ५६ या ५८ प्रकृतियों का बन्ध होता है।
केवलहिक अर्थात् केवलज्ञान और केवलदर्शन में तेरहवी और चौदहवां ये दो गुणस्थान होते हैं। लेकिन वक्त दो गुणस्थानों में से बौदह मुणस्थान में बन्ध के कारणों का अभाव हो जाने से किसी भी कर्मप्रकृति का बन्ध नहीं होता है, लेकिन देरहवें गुणस्थान