Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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वास्वमिस्व
कार्मण काययोग में भी औदारिक मिश्रयोग के समान बन्ध समझना चाहिए, किन्तु तिर्यवायु और मनुष्यायु इन दो प्रकृत्तियों को कम करने में सामान्य से ११२ प्रकृतियों का बन्ध्र मानना चाहिए और गुणस्थानों की अपेक्षा मिथ्यात्व गुणस्थान में १७७, दूसरे में १४, चौधे मैं ७५ और तेरहवें मैं १ सातावेदनीय का बन्ध होता है।
आहारक काययोगद्विक में गुणस्थान के समान ही बन्ध समझना चाहिये । अर्थात् छठे गुणस्थान में जैसे १३ प्रतियों का मधोसा है, वैसे ही इस योग में समझना चाहिए। मतान्तर मे ६३. ४७ प्रकृतियों का भी बन्ध कहा गया है । किन्हीं आचार्यों ने ६२ प्रकृतियों का बन्ध आहारकमिध काययोग में माना है।
इस प्रकार औदारिक, कार्मण और आहारक काययोग में बन्धस्वामित्व बतलाने के बाद अब आगे की गाथा में बैंक्रिय काययोगद्विक, वेद तथा कषाय मार्गणा के अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरमा और प्रत्याख्यानावरण कषाय भेदों में बन्धस्वामित्व बतलाते हैं...
सुरओहो उच्चे तिरियभराउ रहिओ प सम्मिस्से । बेयतिगाहम बिय तिय कसाय नव दु च पंच गुणा ॥१६॥ गाथार्थ---वैक्रिय काययोग में देवमति के समान तथा वैक्रियमित्र काययोग में तिर्यंचायु और मनुष्यायु के सिवाय अन्य सञ्च प्रकातियों का बन्ध बैंक्रिय काययोग के समान तथा वेद और कपाय मार्गणा में श्रमशः वेद मार्गणा में आदि के नौ, अनन्तानुबन्धी कषाय में आदि के दो, द्वितीय अप्रत्याख्यानावरण कषाय में आदि के बार, तृतीय प्रत्याख्यानावरण कषाय में आदि के पाँच गुणस्थान की तरह बन्धस्वामित्व समझना चाहिए । विशेषा-माथा में बैंक्रिय काययोग और बैंक्रियमित्र काययोग या वेद और कषाय मार्गणा के अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरणमतुष्क के बन्धस्वामित्व को बतलाया है।
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