Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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मन्धस्वामित्व
आदि पाँच प्रकृतियों को बाँधते हैं । इसी से कार्मण काययोग के चौथे गुणस्थान में उक्त पांच प्रकृतियों को भी ग्रहण किया गया है।
आहारक काययोगनिक, अर्थात आहारक काययोग और आहा. रकमिश्न काययोग-ये दोनों छठे गुणस्थान में पाये जाते हैं । अतः छठे गुणस्थान के समान इन दोनों योग मार्गणाओं में ६३ प्रकृतियों का बंध होता है।
आहारक काययोग में प्रमत्त और अप्रमत्त विरत ये दो गुणस्थान होते हैं। जब चौदह पूर्वधारी आहारक शरीर करता है, उस समय लब्धि का उपयोग करने से प्रमादयुक्त होता है, तब छठा मुगास्थान होता है । उस समय आहारक शरीर का प्रारम्भ करते समय वह औदारिक के साथ मिश्र होता है। अर्थात् आहारकमिश्र और आहारक इन दो योगों में छठा गुणस्थान होता है, किन्तु बाद में विशुद्धि की शक्ति से साल गुणस्थान में आता है, तब आहारकयोग ही होता है । अर्थात् आहारकयोग में छठा और सातवां ये दो मुणस्थान तथा आहारकमिश्र काययोग में छठा गुणस्थान होता है । तब छठे गुणस्थान में ६३ प्रकृतियों का बन्ध करता है । उक्त प्रकृतियों में शोक, अरति, अस्थिरद्विक, अयश कीति और असाता वेदनीय इन छह प्रकृलियों को कम करने पर सातवें में ५७ प्रकृतियों का और देवायु का बन्ध में करे तो ५६ प्रकृतियों का बन्ध करता है । पंचसंग्रह सप्ततिका की गाथा १४६ में बताया गया है कि आहारकयोग और आहार कमिश्य काययोग वाले अनुक्रम से ५७ और ६३ प्रकृतियों का बन्ध करते हैं। यानी' आहारक काययोग वाला छठे गुणस्थान में ६३ और सातवें गुणस्थान में ५७ प्रकृतियों का बन्ध करता है और आहारकमिश्न काययोग वाला छठे गुणस्थान में ६३ प्रकृतियों का बन्ध करता है।
जैसा इस कर्मग्रन्थ में माना हैं, उसी प्रकार प्राचीन बन्धस्वामित्व