Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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स्वामिल
है और परित्याग काल में अनुक्रम में वैश्थिमिश्र और आहारकमिथ यह व्यपदेश होता है । लेकिन कर्मग्रन्थकार मानते हैं कि किसी भी शरीर द्वारा काययोग का व्यापार हो परन्तु औदारिक शरीर अन्मसिद्ध है और बैंक्रिय व आहारक लब्धिजन्य है अतः लन्धिजन्य शरीर की प्रधानता मानकर प्रारम्भ और परित्याग के समय वैक्रियमिश्र और आहारकमिश्र व्यवहार करना चाहिए, न कि औदारिकमिश्र।
औदारिकमिश्र काययोग में चार गुणस्थान मानने वाले कर्मग्रन्थ के विद्वानों का तात्पर्य इतना ही जान पड़ता है कि कामण शरीर
और औदारिक शरीर दोनों के सहयोग से होने वाले योग को औदारिकमिश्र काययोग कहना चाहिए जो पहले, दूसरे. चौधे और तेरहवें इन चार गुणस्थानों में ही पाया जा सकता है। किन्तु सैद्धान्तिकों का आशय यह है कि जिस प्रकार कामण शरीर को लेकर औदारिक मिश्रता मानी जाती है, उसी प्रकार लम्धिजन्य वत्रिय और आहारक शरीर की मित्रता मानकर औदारिकमिश्र काययोग मानना चाहिए।
सिद्धान्त का उक्त दृष्टिकोण भी ग्रहण करने योग्य है और उस दृष्टि से औदारिकमिश्र काययोग में पांचवां, छठा यह दो गुणस्थान माने जा सकते हैं । किन्तु, यहाँ बन्धस्वामित्व कर्मग्रन्थों के अनुसार बतलाया जा रहा है अतः पांचवें, छठे गुणस्थान सम्बन्धी अन्धस्वामित्व का विचार नहीं किया है ।
औदारिकमिश्र काययोग के बन्धस्वामित्व का कथन करने के बाद अब फार्मण काययोग के बन्चस्वामित्व को बतलाते हैं ।
कार्मण काययोग भवान्तर के लिए जाते हुए अन्तराल मति के समय और जन्म लेने के प्रथम समय में होता है । कार्म काययोग वाले जीवों के पहला, दूसरा. चौथा और तेरहवा.... ये चार गुणस्थान होते हैं। इनमें से तेरहवां गुणस्थान केवली समुद्घात के तीसरे, चौथे और पांचवे समय में सयोगिकेवली भगवान को होता है और