Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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सम्वस्वामिन
यद्यपि टीका' में ७५ प्रकृतियों के बन्धस्वामित्व का निर्देश स्पष्ट किया है-प्रागुक्ता बनर्वात रमसानुबयादिशतिप्रतीविना जिमनामाविप्रतिपक्षमता व पंचसप्ततिस्तामोवारिक निकाययोगी सम्म बध्नाति तथा बन्धस्वामित्व नामक प्राचीन सीसरे कर्मग्रन्थ (गाथा २८२६) में भी ७५ प्रकृतियों के ही बन्ध का विचार किया गया है । इसी प्रकार प्राचीन बन्धस्वामित्व की टीका में श्री गोविन्दाचार्य ने भी इस विषय में किसी प्रकार का शंका-समाधान नहीं किया है । इससे जान पड़ता है कि यह विषय यों ही बिना विशेष विचार किये परम्परा से मूल और टीका में चला आया है । इस ओर कर्मग्रन्थकारों को विचार करना चाहिए । तब तक श्री जयसोमसूरि के समाधान को महत्व देने में कोई हानि नहीं है। ___ औदारिकमिश्र काययोग के स्वामी मनुष्य और तिर्यच है और चौथे गुणस्थान में उनको क्रमशः ७१ और २० प्रकृतियों का बंध कहा है तथापि औदारिकमिश्र काययोग में चौथे मुणस्थान के समय ७१ प्रकृत्तियों का बंध म मानकर ७० प्रकृतियों के बंध को मानने का समर्थन इसलिए किया जाता है कि यह योग अपर्याप्त अवस्था में होता है और अपर्याप्त अवस्था में मनुष्य अथवा तिथंच देवायु का बंध नहीं कर सकते हैं। क्योंकि तिच तथा मनुष्य की गंधयोग्य प्रकृतियों में देवायु परिगणित है। परन्तु औदारिक मिश्र काश्योग को बंधयोग्य प्रकृतियों में से उसको निकाल दिया है ।
तेरहवें गुशस्थान में औदारिकमिश्र काययोग में एक सातावेदनीय प्रकृति का बंध होता है। __ औदारिकमिश्र काययोग में उक्त बंधस्वामित्व का कपन कर्म- .. अाय के मतानुसार किया गया है। लेकिन सिद्धान्त के मतानुसार
१ उक्त टीका मूसकर्ता श्री देवेन्द्रसूरि की नहीं है।