Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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तृतीय कर्मवत्मा
शेष तीन गुणस्थान अन्य जीवों के अन्तराल पति के समय तथा जन्म के प्रथम समय में होते हैं।
इस कार्मण काययोग मार्गणा में सामान्य स तथा मुस्थानों के समय औदारिकमिश्र काययोग के समान बन्दस्वामित्व समझना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि इसमें तिथंचायु और मनुघ्यायु का भी बन्ध नहीं हो सकता है। अर्थात् दूसरे कर्मग्रन्छ के बन्धाधिकार में जो बन्धयोग्य १२० प्रऋतियां बतलाई हैं, उनमें में औदारिकमिश्र काययोग मार्गणा में आहारक शरीर, आहारक अंगो पांग, वायु, नरकगति, नरकानुपूर्वी और नरकायु इन ६ प्रकृतियों के कम करने से ११४ प्रकृतियों का बन्ध बतलाया है। किन्तु कार्मण काययोग में उक्त छह प्रकृतियों के साथ तिर्यंचायु और मनुथ्याथु को और कम करने में सामान्य मे ११२ प्रकृतियों का बन्ध होता है।
मिथ्यात्व गुणस्थान में उक्त ११२ प्रकृतियों में में औदारिकमिश्र काययोग की तरह तीर्थकरनामकर्म आदि पांच प्रकृतियां के बिना १०७ तथा इन १०.७ प्रकृतियों में से दूसरे मुणस्थान में सुक्ष्मत्रिक आदि १३ प्रकृतियों को कम करने में ६४ एवं इन ६४ प्रकृतियों में से अनन्तानुबन्धी क्रोध आदि २४ प्रकृतियों को कम करने तथा तीकरमामकर्म आदि पाँच प्रकृतियों को जोड़ने से चौथे गुणस्थान में ७५ प्रकृतियों का बन्ध होता है और तेरहवें मुगुणस्थान में सिर्फ एक सासावेदनीय कर्मप्रकृति का बन्ध होता है । __यद्यपि कार्मण काययोग बन्दस्वामित्व औदारिकामथ काययोग के समान कहा गया है और चौथे गुस्थान में औदारिकमिश्र काययोग में ७५ प्रकृतियों के बन्ध को लेकर का उठाकर ७० प्रकृतियों के बन्ध का समर्थन किया है । लेकिन कार्मण कामयोग में चतुर्थ गुणस्थान के समय उक्त शंका करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि औदारिकमिश्र काययोग सिर्फ मनुष्यों और सिर्यों के ही होता है, किन्तु कार्मण काययोग के अधिकारी मनुष्य तथा सियंत्रों के अतिरिक्त देव और नारक भी हैं, जो मनुष्यतिक