Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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तृतीय कर्मग्रन्थ
में आहारक काययोगदिक में छठे गुणस्थान के ममान बन्धम्नामिन्य मारता है तथा .....
टहारगे जहा मसास'
- शबीन बधस्वामित्व. मा ४२ किन्तु नेमिचन्द्राचार्य अपने संश्च योम्मटमार कर्मकाण्ड में यद्यपि आहारक काययोग में छठे गुणायाम के समान ६३ प्रकृतियों का बन्ध मानते हैं. लेकिन आहारकमिश्न काययोग में देवायु का बन्ना नहीं मानते हैं। उनके मतानुसार ६२ कृलियों का इन्च होता है...... छरगाबाहारे लम्भिो स्थि देवाऊ ।
.....गी. कर्म का मा० ११८ अर्थात -- आहारक का प्रयोग में छठे गशस्थान की सरह बन्धप्रस्वामित्व है परन्तु आहारकमिथ काय योग में वायु का बन्ध नहीं
सारांश यह है कि कर्मग्रन्थ के अनुसार औदारिकारनं काययोग में चौथे गुणस्थान में सम्मान ५ प्रकलियों का सव होता है, जबकि मिहान्त के अनुसार 90 कलियों का बन्न माना जाता है तथा सिद्धान्त में कियानि और हारकलब्धिका प्रयोग करते समय भी जीद्वारिकापयोग माना है, लेकिन यहाँ उसकी विवक्षा नहीं की गई है क्योंकि कमअन्धकार बैसा नहीं मानते हैं, इसलिए पाँचवें और छठे गुणस्थान का बन्ध नहीं कहा है। ___ सिद्धान्त में जो १२ प्रकृतियों का बन्ध कहा गया है. उममें गाया में आये बाणग्य बीमाई' पद आदि याद में अन्य च प्रकलियों का ग्रहण किया जाना कर्मग्रन्थ और सिद्धान्त के मत में कोई शंका नहीं रहती है। इस प्रकार दूसरे गुणस्थान की बन्धयोग्य ४ प्रकृतियों में से अनातानुबन्धीचतुष्क आदि २४ और अन्य ५ प्रकृतियों को कम
करने से और तीर्थकरनामकर्मपंचक प्रकृत्तियों को मिलाने से ७० प्रकविशालोमा