Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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बस्वामित्व
सारांश यह है कि औदारिकमित्र काययोग मार्गणा में सामान्य से ११४ प्रकृतियों बन्धयोग्य हैं और इस योग वाले के पहला, दूसरा तेरा ये स्थान होते हैं। इनमें से पहले गुणस्थान में १०६ तथा दूसरे गुणस्थान में ६४ प्रकृतियों का होता है ।
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इस प्रकार औerfoकमिश्र काययोग मागंणा में सामान्य से तथा गुणस्थान की अपेक्षा पहले, दूसरे गुणस्थान में बन्धस्वामित्व बतलाने के बाद आगे की गाथा में चौथे और तेरहवें गुणस्थान में बन्धस्वामित्वं बतलाते हैं। साथ ही कार्मण काययोग और आहारक काययोगद्विक में भी स्वामित्व बतलाते हैं
अणचवीसाइ विणा जिणपणजय सम्भि जोगिणी सायं । दिणु तिरिनराउ कस्मे वि एवमाहारवुगिओहो ||१५|| गाथार्थ पूर्वोक्त ९४ प्रकृतियों में से अनन्तानुबन्धचतुष्क आदि चौबीस प्रकृतियों को कम करके शेष रही प्रकृतियों में तीर्थंकर नामक के मिलाने से औदारिकमित्र काययोग में चौथे गुफा स्थान के समय ७५ प्रकृतियों का तथा सयोगिकेवली गुणस्थान में सिर्फ एक सातावेदनीय का बन्ध होता है। कामंण काययोग तिर्यच्त्रयु और मनुष्यायु के बिना और सब प्रकृतियों का tarfrator काययोग के समान ही है और आहारकद्विक में गुण स्थानों में बताये बन्ध के समान बन्ध समझना चाहिए।
विशेषार्थ -- पूर्वगाथा और इस गाथा में मिलाकर औदारिय मिश्र काययोग के पहले, दूसरे, चौथे और तेरहवें गुणस्थान के बन् स्वामित्व का विचार किया है । दूसरे गुणस्थान में २४ प्रकृतिय का बन्ध बतलाया गया है, उनमें से अनन्तानुबन्धी चतुष्क से लेक तिर्यद्विक पर्यन्त २४ प्रकृतियों को कम करने मे ७० प्रकृतियाँ शे
१ तृतीय कर्मग्रन्थ, गा० ३ के अनुसार J