Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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तृतीय कम प्रत्य
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अर्थात् ११४ प्रकृतियों का बन्ध होता है । उसमें भी मिथ्यात्व और सास्वादन- इन दो गुणस्थानों में देवचतुष्क और तीर्थकर नामकर्म इन पाँच प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता है, परन्तु चौथे अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में इनका बन्ध होता है । न की पुष्टि भी
सूरि ने अपने दबे में भी की है। उन्होंने लिखा है कि 'यदि यह पक्ष माना जाय कि शरीरपर्याप्ति पूर्ण होने तक ही औदारिकमिश्र काययोग रहता है तो मिथ्यात्व में तिर्यंचा तथा मनुष्यायु का वध कथमपि नहीं हो सकता है । इसलिए इस पक्ष की अपेक्षा उस योग में सामान्य रूप से ११२ और मिध्यात्व गुणस्थान में १०७ प्रकृतियों का बन्धस्वामित्व समझना चाहिये ।' इस कथन से स्वयोग्य पर्याप्त पूर्ण वन जाने तक औदारिकमिश्र काययोग रहता हैं - इस पक्ष की स्पष्ट सूचना मिलती है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि औदारिकमिश्र काययोग में सामान्य से बंधयोग्य ११४ प्रकृतियाँ और पहले मिथ्यात्व गुणस्थान में १०२ प्रकृतियाँ
योग्य मानना युक्तिसंगत है ।
पहले गुणस्थान में औदारिकमिश्र काययोग का बन्धस्वामित्व बत लाने के बाद अब दूसरे सास्वादन गुणस्थान में स्वामित्व बतलाते हैं । इस गुणस्थान में मनुष्यायु और तिर्यचायु का बन्ध नहीं होता है । क्योंकि सास्वादन गुणस्थान में बर्तता जीव शरीरपर्याप्त पूर्ण नहीं करता है। क्योंकि शरीपर्याप्त पूर्ण हो जाने के बाद आयुबन्ध होना संभव है तथा यहाँ मिथ्यात्व का उदय न होने से मिथ्यात्व के उदय से बाँधने वाली सुक्ष्मत्रिक से लेकर सेवा संहनन पर्यन्त १३ प्रकृतियों का भी बन्ध नहीं होता है । अतः उक्त दो और तेरह ये कुल पन्द्रह प्रकृतियों को पहले मिध्यात्व गुणस्थान की बन्धयोग्य १०६ प्रकृतियों में से कम करने पर ९४ प्रकृतियों का बन्ध होता है । अर्थात् उक्त १५ प्रकृतियों में से १३ प्रकृतियों का विच्छेद मिथ्यात्व गुणस्थान के चरम समय में हो जाने से तथा दो आयु अबन्ध होने से औदारिकfor काययोग वाले के तूने समस्थान में प्रकृतियों का बन्ध होता हैं ।
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