Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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सुतीय कर्मथ
गाया --सनत्कुमारादि देवलोकों में रत्नप्रभा नरक के मारकों के समान तथा आनतादि में उखोत चतुष्क के सिवाय शेष बन्ध समझना चाहिए। एकेन्द्रिय, पृथ्वी, जल, वनस्पति और विकले. न्द्रियों में अपर्याप्त तिबंधों के समान १०९ प्रकृतियों का बन्ध होता है। विशेषार्थ-इस गाथा में सनत्कुमार आदि तीसरे देवलोक में लेकर नवग्रं वेयक देवों पर्यन्त तथा इन्द्रियमार्गणा के एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय--- द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय एवं कायमार्गणा के पृथ्वी, जल, धनस्पति काय के जीवों के बन्धस्वामित्व को बतलाया गया है। ___ गाथा में सनत्कुमार नामक तीसरे देवलोक से नवग्रंबेयक तक के देवों के वन्धस्वामित्व का वर्णन दो विभागों में किया गया है। पहले विभाग में सनत्कुमार से लेकर आमत स्वर्ग के पूर्व सहस्रार तक के देवों को और दूसरे विभाग में आनत स्वर्म से लेकर नवग्रंदे. यक पर्यन्त देवों को ग्रहण किया है । यद्यपि गाथा में अनुत्तर विमानों के बारे में संकेत नहीं किया गया है, लेकिन अनुत्तर विमानों में सदैव सम्यकृष्टि जीव उत्पन्न होते हैं और उनके चौथा गुणस्थान ही होता है । इसलिए कर्मप्रकृतियों के बन्ध में न्यूनाधिकता न होने से सामान्य से व गुणस्थान की अपेक्षा एक सा ही बन्ध होता है । देवों के चौथे गुणस्थान में ७२ प्रकृतियों का बन्ध होता है, अतः इनके भी वही समझना चाहिए।
उक्त दो विभागों में पहले विभाग के सनत्कुमार से सहलार देवलोक तक के देव जैसे रत्नप्रभा नरक के नारक सामान्य से और मुणस्थानों में जितनी प्रकृतियों का बन्ध करते हैं, वैसे ही उतनी प्रकृत्तियों का बन्ध इन देवों को समझना चाहिए। क्योंकि ये देव उन-उन देवलोकों से जब कर एकेन्द्रिय में उत्पन्न नहीं होते हैं, इसलिए एकेन्द्रिय-प्रायोग्य एकेन्द्रिय जाति, स्थावर नाम और आतप माम-इन तीन प्रकृतियों का बन्ध नहीं करते हैं । इसलिए सामान्य से १०१ प्रकृतियों को बाँधते हैं । मिथ्यात्व गुणस्थान में तीर्थकरनाम