Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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मन्यशसिस्य
उतनी इन्द्रियों वाला जीव कहते हैं। जैसे—जिसके पहली स्पर्शनेन्द्रिय होती है उसे एकेन्द्रिय, जिसके स्पर्शन, रसना---यह दो इन्द्रियां होती हैं, उसे द्वीन्द्रिय कहते हैं । इसी प्रकार क्रम-क्रम से एक-एक इन्द्रिय को. बढ़ाते जाने पर पंचेन्द्रिय जीव कहे जाते हैं । इन एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीवों में से इस गाथा में एकेन्द्रिय, बीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय जीवों का तथा कायमार्गणा के पहले बताये गये छह भेदों में में पृथ्वीकाय. अपकाय और वनस्पतिकाथ-इन तीन कायों का बन्धस्वामित्व बतलाया गया है।
ये एकेन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय तक तथा पृथ्वी, अप और वनस्पतिकाय कुल सात प्रकार के जीवों में पहले गतिमार्गमा में कहे गये अपर्याप्त तिर्यचों के बन्धस्वामित्व के समान ही १०९ प्रकृतियों का सामान्य से बन्ध समझना चाहिये तथा अपर्याप्त तिर्यो । के पहले गुणस्थान में अपर्याप्त नियंत्रों के समान १०६ प्रकृतियों का बन्ध समझना चाहिए। __इस प्रकार गतिमार्गणा में सनत्कुमार से अनुत्तर तक के देवों तथा इन्द्रियमार्गणा में एकेन्द्रिय ब विकलेन्द्रियों और कायमार्गणा में पृथ्वीकाय, अपकाय और वनस्पतिकाय के बन्धस्वामित्व को बतलाने के बाद अब आगे की गाथा में एकेन्द्रिय आदि का सास्वादन गुणास्थान की. अपेक्षा बन्धस्वामित्व सम्बन्धी मतान्तर बतलाते हैं ....
छनवई सासणि विण सुहमलेर केइ घुण बिति चलनवाइ । सिरियनराहि विणा तपज्जत्ति' मते जति ॥१६॥ गायार्थ पूर्वोक्त एकेन्द्रिय आदि जीव सूक्ष्मत्रिक आदि तेरह प्रकृत्तियों के बिना सास्वादन गुणस्थान में ६६ प्रकृति को बन्ध करते हैं । किन्हीं आचार्यों का मत है कि वे शारीरपर्याप्ति पूर्ण नहीं करते हैं, अतः तिथंचायु और मनुष्यायु के बिना १४ प्रकृतियों का बन्ध करते हैं।
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१. 'न जति जओ' ऐसा मी पाठ है ।