Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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मन्यस्वामित्व
इन दोनों बसों के सामान्य में बन्धयोग्य १२० प्रकृतियों में में जिन-एकादश अर्थात तीर्थकरनामकर्म से लेकर नरकत्रिकपर्यन्त ११ प्रकृतियों तथा मनुष्यत्रिक और उच्चगोत्र इन १५ प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता है । अतः १२० प्रकृतियों में से १५ प्रकृतियों को कम करने में १०५ प्रकृतियों का बन्ध होता है।
तीर्थकरनामकर्म आदि १५ प्रकृतियों के बन्ध न होने का कारण यह है कि काय और वायुकाय के जीव देव, मनुष्य और नारकों में उत्पन्न नहीं होते हैं, इसलिए उनके योग्य १४ प्रकृतियों का बन्ध नहीं करते हैं। तेउकाय और वायुकाय जीव तिथंचगति में उत्पन्न होते हैं तथा वहाँ भवनिमित्तकनी मन उदय में होता है; इसलिए उच्च गोत्र का बध नहीं कर सकते हैं।
इन दोनों गतित्रसों के सिर्फ मिध्यात्व गृणस्थान ही होता है, सास्वादन गुणस्थान नहीं होता है, क्योंकि सम्यक्त्व का वमन करता हुआ कोई जीव इस गुणस्थान में आकर उत्पन्न नहीं होता है। इसलिए सामान्य से जैसे सेउकाय और वायुकाय के जीव १०५ प्रकतियों को बांधते हैं, उसी प्रकार मिथ्यात्व गुणस्थान में भी १०५ प्रकृतियों का बन्ध होता है। ___काय मार्गणा में बन्धस्वामित्व का काथन करने के बाद अब योगमार्गणा में बन्धस्वामित्व बतलाते हैं।
योग के मूल में मनोयोग, वचस्योग और काययोग-ये तीन मुख्य भेद हैं और इनमें भी मनोयोग के चार, वचनयोग के चार और काययोग के सात भेद होते हैं । मनोयोग और मनोयोग महित वचन योग इन दो भेदों में तेरह गुणस्थान होते हैं, अतः उनमें दूसरे कर्म ग्रन्थ में बतलाये गये वन्ध के अनुसार ही बन्ध समझना चाहिये ।
गाश के 'मणवयमओगे ओहो उरने दरभंग' पद में मणश्य योगे तथा उरले- ये दोनों पद सामान्य हैं तथापि 'ओहो' और 'भरमंगु पर के मध्य में प्रयोग' का मतलब मनोयोग सहित वचनयोग