Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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तृतीय कमपन्य
और उरल का मतलब मनोयोग, वचनयोग सहित औदारिक काययोग समझना चाहिये । उसी दृष्टिकोण की अपेक्षा बन्धस्वामित्व का विचार किया गया है। लेकिन अयोग से केवल वचनयोग और वरल से केवल औदारिक काग्रयोग ग्रहण किया जाय तो मनोयोग रहित बचनयोग में बन्धस्वामित्व विकलेन्द्रिय के समान और काययोग में एकेन्द्रिय के समान समझना चाहिए । अर्थात् जैसे विकलेन्द्रियों और एकेन्द्रिय में क्रमशः सामान्य से १०६. मिथ्यात्व गुणस्थान में १०६ और सास्वादन गुणस्थान हद
अ रियों का नई पासवा है उसी प्रकार इनमें भी बन्धस्वामित्व समझना चाहिए। ___ सारांश यह है कि पंचेन्द्रिय तथा अस मार्गणा में सामान्य बन्धाधिकार के समान बन्ध समझना और गलित्रसों में जिन-एकादश, मनुष्यत्रिक और उच्चगोत्र इन १५ प्रकृतियों को कम करने मे १०५ प्रकृत्तियों का सामान्य से और पहले गुणस्थान में बंध होता है।
योग मार्गणा में मनोयोग, बचनयोग सहित औदारिक काययोग वालों के पर्याप्त मनुध्य में कहे गये बन्ध के समान ही बन्ध समझना । केवल बचनयोग और काययोग का बन्धस्वामित्व एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रियों के समान बताये गये बन्छ के समान समझना चाहिए।
इस प्रकार मन, वचन व उन सहित औदारिक काययोग में पूर्ण रूप से तथा काययोग में औदारिक काययोग का बन्धस्वामित्व बतलाने के बाद आगे काययोग के शेष भेदों में बन्धस्वामित्व बतलाते हैं। उनमें में सर्वप्रथम औदारिकमिश्र काययोग का बन्धस्वामित्व बतलाते हैं--
आहार छग विणोहे चउससड मिच्छि जिणयमगहीन । सासणि चलनवा विणा नरतिरिम सहमतेर ॥१४॥
१. तिरिअनसक ...इति पाठान्तरम् ।