Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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बम्हस्वामिय
गामार्थ- (पूर्व गाथा में लम्मिसे पद यहाँ लिया जाय) औदारिक मिश्रयोग में सामान्य से आहारकपटक के बिना १६४ प्रकृतियों का : बन्ध होता है और मिथ्यात्व गुणस्थान में जिननामपंचम : से होन १०६ प्रकृतियों का बन्ध मानना चाहिए तथा सास्वादन में मनुष्यायु और तियंचायु तथा सूक्ष्मत्रिक आदि तेरह कुल १५ प्रकृतियों के सिवाय १४ प्रकृत्तियों का बन्ध होता है ।
विशेषार्थ -- गाथा में औदारिकमिश्र काययोग मार्गहा में सामान्य रूप से और पहले, दूसरे गुणस्थान में बन्धस्वामित्व का कथन किया गया है।
पूर्वभव में आने वाला जीव अपने उत्पति स्थान में प्रथम समय में केवल कार्मणयोग द्वारा आहार ग्रहण करता है । उसके बाद औदा. रिक काययोग की शुरुआत होती है, वह शरीरपर्याप्ति श्नने तक . कार्मण के साथ मिथ होता है और केवलिसमुद्धात अवस्था में दूसरे, छठे और सातवें समय में कार्मण के साथ औदारिकमिध योगद होता है। __औदारिकामश्च का योगयमनुष्य और तिर्यंचों के अपर्याप्त अवस्था में ही होता है और इसमें पहला, दूसरा, चौथा और तेरहवा ये चार गुणस्थान होते हैं।
औदारकमिथ काययोग में सामान्य में आहारकटिक---आहारक शरीर, आहारक अंगोपांग, देवायु और नरकत्रिक... नरकगति, नरकानुपूर्वी, नरकायु इन छह को बंधयोग्य १२० प्रकृतियों में से कम करने में ११४ प्रकृतियों का बंध होता है । क्योंकि विशिष्ट चारित्र के अभाव में; सथा सातवें गुणस्थान में ही बन्ध होने से माहारकृतिक का औदारिकमिश्र काययोग में बन्ध नहीं हो सकता तथा देवायु और .. नरकत्रिक-... इन चार प्रकतियों का बंध सम्पूर्ण पर्याप्ति पूर्ण किये बिना नहीं होता है, अतः इन छह प्रकृतियों का बंध औदारिकमिधः । काययोग में नहीं माना जाता है ।