Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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तृतीय कर्मप्रत्य
विशेषार्थ - इस गाथा में पंचेन्द्रियजाति, जसकाय, गतिस के aa area करने के साय योग में के का प्रारम्भ किया गया है ।
पंचेन्द्रियजाति और xeera का बन्धस्वामित्व बन्धाधिकार में सामान्य से तथा गुणस्थानों की अपेक्षा कहे गये बन्ध के अनुसार ही समझना चाहिए अर्थात् जैसा कर्मग्रन्थ दूसरे भाग में सामान्य से १२० और विशेष रूप से गुणस्थानों में पहले से लेकर तेरहवें पर्यन्त क्रमश: ११७ २०१, ७४, ७७ आदि प्रकृतियों का बन्ध कहा है, वैसा ही पंचेन्द्रियजाति और साथ में सामान्य से १२० और गुणस्थानों में क्रमशः ११७, १०१, ७४, ७७ आदि प्रकृतियों का बन्ध समझना चाहिये । इसी तरह आगे भी जिस मार्गणा में बन्धाधिकार के समान बन्ध स्वामित्व कहा जाय, वहाँ उस मार्गणा में जितने गुणस्थानों की संभावना हो, उतने गुणस्थानों में बन्धाधिकार के समान बन्धFarfare समझ लेना चाहिये ।
शास्त्र में स जीव दो प्रकार के माने गये हैं-गतिवस, लब्धियस । जिन्हें स नामकर्म का उदय होता है और जो चलते-फिरते भी हैं, उन्हें लब्धिस' तथा जिनको उदय तो स्थावर नामकर्म का होता है, परन्तु गतिक्रिया पाई जाती हैं, उन्हें गतित्रस कहते हैं । उक्त दोनों प्रकार के नसों में से four के Pataria को बतलाया जा चुका है । अब गतित्रस के बन्धस्वामित्व को बतलाते हैं ।
गतिस के दो भेद हैं- danta और वाकाय । इन दोनों के स्थावर नामकर्म का उदय है। लेकिन गति साधर्म्यं से उनको गतिस कहते हैं ।
१ द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, ये कहलाते हैं क्योंकि - इनको स नामकर्म का उदय है।