Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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तृतीय कर्मग्रन्थ
(एकेन्द्रिय तथा विकलत्रय, अर्थात दो इन्द्रिय तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय में, ferratoक अवस्था की तरह बन्धयोग्य १०६ प्रकृतियाँ समझना, क्योंकि तीर्थंकर, आहारकद्वय, देव यु. नरकायु और वैक्रिय बक इस तरह भ्यारह प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता और एकेन्द्रिय तथा विकलत्रय में उत्पन्न हुआ जीव सास्वादन गुणस्थान में देह (शरीर) पर्याप्त को पूरा नहीं कर सकता है क्योंकि सास्वादन काल अल्प है और निर्वृत्ति अपर्याप्त अवस्था का काल बहुत है । इस कारण इस गुणस्थान में मनुष्यायु तथा तिचा का भी बन्ध नहीं होता है ।)
उक्त दोनों मतों का स्पष्टीकरण इस प्रकार है
'एकेन्द्रिय आदि में सास्वादन गुणस्थान में ६६ और १४ प्रक्रतियों के बंध विषयक मतों में से ६६ प्रकृतियों के बन्ध वालों का मन्तव्य यह है कि शरीरपर्याप्त पूर्ण होने के बाद भी सास्वादन रहता है और उस समय आयुष्य का बन्ध करे तो ६६ प्रकृतियों का बन्ध हो ! इससे यह प्रतीत होता है कि छह आवलिका में अन्तर्मुहूर्त गध्यम हो जाता है, इसलिए शरीरपर्याप्त छह आलिका में पूर्ण हो जाती है, उसके बाद आयुष्य का बन्ध होता है, ऐसा मालूम होता है। परन्तु श्री जीवविजयजी और जयसोमसूरि ने अपने में तथा योम्मटसार कर्मकाण्ड में यह मत प्रदर्शित किया है कि एकेन्द्रिय आदि की जघन्य आयु २५६ आवलिका प्रमाण है और उसके दो भाग अर्थात १७० आवलिकाएँ बीतने पर ही आयुबन्ध संभव है । परन्तु उसके पहले ही सास्वादन सम्यक्त्व चला जाता है, क्योंकि वह उत्कृष्ट छह आवलिकापर्यन्त रहता है। इसलिये सास्वादन अवस्था में ही शरीर और इन्द्रियपर्याप्ति का पूर्ण बन जाना मान भी लिया जाये तथापि सास्वादन अवस्था में आयुबन्ध किसी तरह संभव नहीं है । इसके प्रमाण में औदारिकमित्र मागंगा के सास्वादन गुणस्थान सम्बन्धी ६४ प्रकृतियों के बन्ध का उल्लेख किया है। गोम्मटसार कर्मकाण्ड में भी बताया है कि एकेन्द्रिय तथा विकलेन्द्रिय में पैदा हुआ सास्वादन सम्यक्त्वी जीव शरीरपर्याप्ति
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