Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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प्रामामिस्व
६६ और ६४ प्रकृतियों के बन्धस्वामित्व की मतभिन्नता प्राचीन बन्धस्वामित्व में भी देखी जाती है । इस सम्बन्धी गाथाएँ निम्न प्रकार हैं
साणा बन्नाह लोलस मरतिग होणा या मोत नउई ।
ओघेणं बोसुसर सयं च पंचिनिया सन्धे १३॥ सविलिदी साणा सणु पत्ति न मंति में तेण ।
नर तिरयाउ अगन्धा मयंसरण सु बजगाई ॥२४॥ १६ प्रकृतियों का बन्ध्र मानने वालों का अभिप्राय यह प्रतीत होता है कि इन्द्रियपर्याप्ति के पूर्ण हो चुकने के बाद, जबकि आयुवन्ध का काल आता है, तब तक सास्वादन भाव बना रहता है । इसलिए सास्वादन गुणस्थान में एकेन्द्रिय आदि जीव तिर्यंचायु तथा मनुध्यायु का बन्ध कर सकते हैं।
लेकिन ६४ प्रकृत्तियों का बंध मानने वाले आचार्यों का मत है कि एकेन्द्रिय जीव का जघन्य आयुष्य २५६ आलिका होता है । आगामी भव का आयुष्य इस भव के आयुष्य दो भाय बोल जाने के बाद तीसरे भाग में बंधता है, अर्थात् आगामी भव का आयुष्य २५६ आवलिका के दो भाग १७० आवलिका बीत जाने के बाद तीसरे भाग को १७१वी आवली में बंधता है और सास्वादन सम्यकद का समय (छह आवली) पहले ही पूरा हो जाता है। सास्वादन अवस्था में पहली तीन पर्याप्ति पूर्ण हो जाती हैं, यदि ऐसा मान भी लिया जाय तो भी आयुष्य-बन्ध सम्भव नहीं माना जा सकता है तथा औदारिकमिश्न मार्गणा में ६४ प्रकृतियों का बन्ध कहा गया है । अतः ६४ प्रकृतियों के बन्ध का मत युक्तिसंगत मालूम होता है । इसी मत के समर्थन में श्री जीवविजयजी तथा जयसोमसूरि ने अपने टवे में यही बात कही है। इसी मत का समर्थन गोम्मटसार कर्मकाण्ड में नमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने भी किया है
पुरिणवर विगिविगले तस्थुषाणो हु ससाई वेहे । पज्जति मवि पावि इरितिरिपाऊस गरिथ ॥११३१॥