Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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तृतीय कर्मग्रन्थ
विशेधार्थ - इस गाथा में एक य. निमोनिय. सी, अप और वनस्पति काय के जीवों के सास्वादन गुणस्थान में बन्धस्वामित्व को बतलाया है।
पूर्वगाथा में एकेन्द्रिय आदि जीवों के सामान्य मर और गुमस्थान की अपेक्षा मिथ्यात्व गुणस्थान में अपर्याप्त तियंत्रों के समान १०६ प्रकृतियों का बन्ध बतलाया था । इन १०१ प्रकृतियों में से सास्वादन गुणस्थान में सूक्ष्मत्रिक, विकलविक, एकेन्द्रिय जाति, स्थावर नाम, नपुसकवेद, मिथ्यात्वमोहनीय, हुंड संस्थान और सेवात संहनन ये १३ प्रकृतियाँ मिथ्यात्व के उदय से बंधती है, किंतु सास्वादन गुणस्थान में मिथ्यात्व का उदय न होने से इनको कम करने पर ६६ प्रकृतियों का बिन्ध होता है क्योंकि भवनपत्ति, व्यन्तर आदि देवजाति के देव मिथ्यात्वनमित्तक एकेन्द्रिय-प्रायोग्य आयु का बन्ध करने के अनन्तर सम्यक्त्व प्राप्त करें तो वे मरण के समय सम्यक्त्व का वमन करके एकेन्द्रिय रूप में उत्पन्न होते हैं । उनके शरीर पर्याप्ति पूर्ण करने के पहले सास्वादन सम्यक्त्व हो तो वे ६६ प्रकृत्तियों का बन्ध्र करते हैं ।
लेकिन दूसरे आचार्यों का मत है कि ये एकेन्द्रिय आदि दुसरे गुणस्थान के समय तिर्यंचायु और मनुष्यायु का भी बन्ध नहीं करने से ६४ प्रकृतियों का बन्ध करते हैं। इसी ग्रन्थ में आगे औदारिकमिश्र में भी सास्वादन गुणस्थान में आयुबन्ध का निषेध किया है। क्योंकि यह अपर्याप्त है।
यह सिद्धान्त है कि कोई भी जीव इन्द्रियपर्याप्ति पूरी किये बिना आयु का बन्ध नहीं कर सकते हैं।
१. सूक्ष्मनाम, साधारणनाम, अपर्याप्तनाम । २. द्वीन्द्रिय, वीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय । ३. सासणि चजनवद विणा नरसिरिआऊ सुहमलेर ।
पन्ध ३, गाथा १४