Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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कर्म से रहित १००, सास्वादन गुणस्थान में नपुंसकचतुरुक के बिना १६ और मिश्र गुणस्थान में अनन्तानुबन्धीचतुष्क आदि २६ से रहित ७० और अविरत सम्यम्दृष्टि गुणस्थान में मनुष्यायु, तीर्थकरनामकर्म का भी बन्ध होने से ७२ प्रकृतियों को बाँधते हैं।
आनतादि नवग्रं वेयक पर्यन्त के देव उद्योतचतुष्कः -- उद्योतनाम, तिर्यंचगति, तिथंचानुपूर्वी और सिना इन चार प्रकालिगों को नहीं बांधते हैं। क्योंकि इन स्वर्गों से च्यव कर ये देव मनुष्य गति मे ही उत्पन्न होते हैं, तिबंधों में नहीं । अतः तिर्यंच प्रायोग्य इन चार प्रकृतियों को नहीं बाधते हैं। इसलिए १२० प्रकृतियों में सुरद्विक आदि उन्नीस और उचोत आदि चार प्रकृतियों को कम करने में १५ प्रकृतियों का सामान्य में बन्ध करते हैं और गुणस्थानों की अपेक्षा पहले में १६, दूसरे में १२, तीसरे में १० और चौथे में ७२ प्रकृतियों का वध करते हैं। ____ अनुसर विमानों में सम्यक्त्वी जीव ही उत्पन्न होते हैं और सम्मानव की अपेक्षा चौथा गुणस्थान होता है । अत: इनके सामान्य से और गुणस्थान की अपेक्षा ७२ प्रऋतियों का अन्ध समझना चाहिए।
इस प्रकार से गतिमार्गणा में बन्धस्वामित्व बतलान के बाद अब आगे इन्द्रिय और काम मार्गणा में बन्धस्वामित्व को बतलाते हैं।
इन्द्रियमाणा में एकेन्द्रिय. द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय तथा काधमार्गणा में पृथ्वीकाय, अपकाय और वनस्पतिकाय के जीव अपर्याप्त तिर्यचों के समान १०६ प्रकृतियों को बन्ध करते हैं।' क्योंकि अपनीप्त तिर्यंच या मनुष्य तीर्थकरनामकर्म से लेकर नरकत्रिक पर्यन्त ११ प्रकृत्तियों का बन्ध नहीं करते हैं, इसी प्रकार यह सातों मागंणा वाले जीवों के सम्यक्त्व नहीं है तथा देवगति और
१ जिण कारस होणं नबसाउ अपातलिपियनरा ।
-मंन्य ३, गा०६