Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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मनस्वामित्व
प्रकृतियों का बन्ध माना जाता है, उसकी अपेक्षा इन १.१ प्रकृतियों में एकेन्द्रियनिक को और मिलाने पर १०४ प्रकृतियों का बन्ध समझना चाहिए।
इन १०४ प्रकृतियों का बन्ध सामान्य से कल्पवासी देवा तथा पहले और दूसरे कल्प के देवों को समझना चाहिए। लेकिन मिथ्यात्व गुणस्थान में तीर्थकरनामकर्म का बन्ध नहीं होने से १०३ प्रकृतियों का, दूसरे गुणस्थान में मिथ्यात्व के उदय से बँधने वाली एकेन्द्रिय जाति आदि सात प्रकृत्तियों के नहीं बंधने से १६ और इन ६६ प्रकृत्तियों में से अनन्तानुबन्धीचतुष्क आदि २६ प्रकृत्तियों को कम करने से तीसरे गुणस्थान में ७० प्रकृतियों का बन्ध्र होता है और चौथे स्थान में मनुष्यायु एवं तीर्थकरनामकर्म का बन्ध होने में मिश्र गुणस्थाल की ७० प्रकृतियों में इन दो प्रकृतियों को जोड़ने से ७२ प्रकृतियों का बन्न होता है। ___ज्योतिष्क, भवनति और व्यंसर निकाय के देवों के तीर्थकर नामकर्म का बन्ध नहीं होता है। अतः इन तीनों निकायों के देवों के सामान्य से बन्धयोग्य प्रकृत्तियाँ १०३ हैं तथा मिथ्यात्व मुणस्थान में भी १०३ प्रकृतियों का बंध होता है। दूसरे तथा तीसरे गुणस्थान में कल्पवासी देवों के समान ही ६६ और ७० प्रकृतियों का और चौथे गुणस्थान में तीर्थकरनामकर्म का बन्ध न होने से ७२ की बजाय ७१ प्रकृतियों का बन्ध समझना चाहिए।
इस प्रकार से देवगति में सामान्य से तथा कल्पवासियों के कल्पद्विक तथा ज्योतिष्क, भवनपति और व्यंतर निकायों के गुणस्थानों की अपेक्षा बन्धस्वामित्व बतलाने के बाद आगे की गाथा में सनत्कुमारादि कल्पों और इन्द्रिय एवं कार मार्मणा में बन्धस्वामित्व का वर्णन करते हैं...
रयण व सणकुमाराई आणधाई उजोपचड रहिया । अपयतिरिय व नवसमिगिदि युद्धविजलसरविगले ॥११॥