Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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तृतीय कर्मप्रन्य
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इस प्रकार नरकगति में सामान्य से तथा पहले और दूसरे गुणस्थान में नारक जीवों के कर्मप्रकृतियों के बन्धस्वामित्व का वर्णन करने के बाद अब आगे की गाथा में तीसरे और चौथे गुणस्थान तथा रत्नप्रभा आदि भूमियों के नारकों के बंधस्वामित्व को कहते हैं-
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गाथार्थ -- अनन्तानुबंधी चतुष्क आदि छब्बीस प्रकृतियों के बिना मिश्रगुणस्थान में सत्तर तथा इनमें तीर्थङ्कर नाम और मनुष्यायु को जोड़ने पर सम्यक्त्व गुणस्थान में बहत्तर प्रकृतियों का बंध होता है । इसी प्रकार नरकगति की यह सामान्य बंधविधि रत्नप्रभादि तीन नरकभूमियों के नारकों के चारों गुणस्थान में भी समझना साहिए तथा पंकप्रभा आदि नरकों में तीर्थङ्कर नामकर्म के बिना शेष सामान्य बंधविधि पूर्ववत समझना चाहिए।
विशेषार्थ - नरकगति में पहले और दूसरे गुणस्थान में बंधस्वामित्व कहने के बाद इस गाथा में तीसरे और चौथे गुणस्थान और रत्नप्रभा आदि छह नरकभूमियों के नारकियों के प्रकृतियों के बंध को बतलाते हैं।
मिश्र गुणस्थानवर्ती नारकों के ७० कर्मप्रकृतियों का बंध होता है । क्योंकि अनन्तानुबंधी कषाय के उदय से बँधने वाली अनन्तानुबंधी चतुष्क, मध्यम संस्थानचतुष्क. मध्यम संहननचतुष्क अशुभ विहायोगति नीचगोत्र, स्त्रीवेद, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय स्थानत्रिक, उद्योत और नियंत्रिक, इन २५ प्रकृतियों का मिश्र गुणस्थान में अनन्तानुबंधी का उदय न होने से बंध नहीं होता है । अनन्तान बंधी कषाय का उदय पहले और दूसरे गुणस्थान तक ह्री होता है, तीसरे आदि गुणस्थानों में नहीं । दूसरे गुणस्थान के अन्तिम समय में अनन्तानुबंध कषाय की विसंयोजना या क्षय हो जाता है,
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