Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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तृतीय कर्मग्रन्थ
के नारक के लिये ये तीन प्रकृतियों उत्कृष्ट पुण्यप्रकृतियाँ हैं, जो उत्कृष्ट विशुद्ध मध्यवसाय से बांधी जाती हैं और उत्कृष्ट अध्यवसाय स्थान सातवें नरक में तीसरे और चोथे गुणस्थान में होते हैं।' इसलिए मनुष्य गति, मनुष्यानुपूर्वी तथा उच्च गोत्र- इन तीन प्रकृतियों के अवन्ध्य होने से सामान्य से बंधयोग्य ६६ प्रकृतियों में से इन तीन प्रकृतियों को कम करने पर मिथ्यात्व गुणस्थान में सातवें सर के नारकों के ६६ प्रकृतियों का बंध होना माना जाता है ।
सातवें नरक के नारकों के दूसरे सास्वादन गुणस्थान में तिर्यचायु और नपुंसकचतुष्क- नपुंसक वेद, मिध्यात्व, हुंड संस्थान और सेवार्त संहनन कुल पाँच प्रकृतियाँ अवन्ध्य होने से मिथ्यात्व गुणस्थान में जो e६ प्रकृतियों का बंध कहा गया, उनमें से इन प्रकृतियों को कम करने पर ६१ प्रकृतियों का बन्ध होता है। क्योंकि इस गुणस्थान में योग्य अध्यवसाय का अभाव होने में तिर्यंचायु का बन्ध नहीं होता है और नपुंसकचतुष्क मिथ्यात्व के उदय में होता है, किन्तु सास्वादन गुणस्थान में मिथ्यात्व का उदय नहीं है । अतः नपुंसकचतुष्क का बन्ध नहीं होता है । इसलिये ६६ प्रकृतियों में से इन पाँच प्रकृतियों को कम करने से सास्वादन गुणस्थानवर्ती सातवें नरक के नारकों को ९१ प्रकृतियों का बन्ध होता है ।
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सातवें नरकवर्ती सास्वादन गुणस्थान वाले नारकों को जो ह प्रकृतियों का बन्ध कहा गया है, उनमें से अनन्तानुबन्धीचतुष्क आदि तिर्यद्विक पर्यन्त २४ प्रकृतियों को, अर्थात् अनन्तानुबन्धी कोध, मान, माया, लोभ, न्यग्रोध परिमंडल, सादि वामन कुब्ज संस्थान, ऋषभनाराच नाराच अर्धनाराच कीलिका संहनन, अशुभ विहायोगति, नीचगोत्र, स्त्रीवेद, दुभंग, दुःस्वर, अनादेय, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला. स्त्यानदि उद्योत तिर्यंचगति तिर्यचानुपूर्वी इन
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१ मि साबिर उच्च मत्रयुगं सत्तमे हवे बंधो ।
मिच्छा सासनसम्मा मनुष्णं ग ति ॥
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मी० कर्मकांड १०७