Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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বুৰীয় গল্প
बतलाना हो तो पहले से लेकर पांचवें गुणस्थान तक पूर्व गाथा में कहे गये पर्याप्त तिर्यंचों के बंधस्वामित्व के अनुसार बन्ध समझना चाहिए । लेकिन इतनी विशेषता है कि चौथे और पाँच गुणस्थान में पर्याप्त तिपत्र ७० और ६६ प्रकृतियों का बन्ध करते हैं, उसकी बजाय पर्याप्त मनुष्यों के चौथे गुणस्थान में तीर्थकर नामकर्म का भी बन्ध हो सकने से ७१ तथा पाँचव गुणगान में , प्रतियों का होगा। अर्थात् पर्याप्त मध्य पहले गुणस्थान में ११७. दूसरे गुणस्थान में १०१, तीसरे गुणस्थान में ६६, चौथे गुणस्थान में ७१ और पाँचवें गुणस्थान में ६७ प्रकृतियों का बन्ध करते हैं और छठे गुणस्थान से लेकर तेरहवें गुणस्थान तक दूसरे कर्मग्रन्थ में बताये गये बन्धाधिकार के समान बन्ध समझना चाहिए।
अपर्याप्त मनुष्य और तियंच के तीर्थकरनामकर्म में लेकर नरकत्रिक पर्यन्त ग्यारह प्रकृतियों का बन्ध्र ही नहीं होता है तथा पहला गुणस्थान होता है अतः सामान्य और गुणस्थान को अपेक्षा १०६ प्रकृतियों का बन्ध समझना चाहिए।
इस प्रकार मनुष्यगति में बन्धस्वामित्व बतलाने के बाद अब आगे की गाथा में देवगन के बन्धस्वामित्व का वर्णन करते हैं...
निरय व्य सुरा नवरं ओहे मिच्छे इगिदितिगसहिया ।।
करपदुगे वि य एवं जिणहीणो जोइभवणवणे ॥१०॥ माधानारकों के प्रकृतिबन्ध के ही समान देवों के भी बन्ध समझना चाहिए। लेकिन सामान्य से और पहले गुणस्थान की बन्धयोग्य प्रकृतियों में कुछ विशेषता है। क्योंकि एकेन्द्रियत्रिक को देव बांधते हैं, किन्तु नारक नहीं बांधते हैं। कल्पद्विक में इसी प्रकार समझना चाहिए तथा ज्योतिष्कों, भवनपतियों और ब्यंतर देव निकायों के, तीर्थकरनामकर्म के सिवाय अन्य सब प्रकृतियों का बन्ध पहले और दुसरे देवलोक के देवों के समान समझना चाहिए।