Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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बन्धस्वामिद
अप्रत्याख्याना वरणचतुष्क को कम करने से ६७ प्रकृतियों के बन्ध होने का कथन किया जाता है।
पर्याप्त तिमंचों और मनुष्यों के बन्धस्वामित्व का कथन करने के बाद अब अपर्याप्त तिर्यंचों और मनुष्यों के सामान्य तथा विशेष दोनों प्रकार से बन्धवामित्व को बतलाते हैं ! ___ अपर्याप्त तिर्यच और अपर्याप्त मनुष्य- इनमें अपर्याप्त शब्द का मतलब लन्धि' अपर्याप्त समझना चाहिए, करपा अपर्याप्त नहीं । क्योंकि अपर्याप्त शब्द का उक्त अर्थ करने का कारण यह है कि अपर्याप्त मनुष्य तीर्थकरनामकर्म को भी बांध सकता है ।।
इन लध्यपर्याप्त तिर्यचों और मनुष्यों के सामान्य में तीर्थंकर नामकर्म, देवद्विक, क्रियाद्विक, आहारकद्विक, देवायु, नरकत्रिक--इल ग्यारह प्रकृतियों को बंधयोग्य १२० प्रकृतियों में से कम करने पर १०६ प्रकृतियों का बन्ध होता है तथा अपर्याप्त अवस्था में सिर्फ मिथ्यात्व सुणस्थान ही होने से इस मुणस्थान में भी १६ प्रकृतियों का बन्ध कर सकते हैं । क्योंकि मिध्यादृष्टि होने में तीर्थंकर नामकर्म और आहारकद्विक का बन्ध नहीं करते हैं तथा मरकर देवगति में जाते नहीं, अतः देवद्विक, वैक्रिय द्विक और देवायु का भी बन्ध नहीं करते हैं । अपर्याप्त जीव नरकगति में उत्पन्न नहीं होते, अतः नरकत्रिक का भी बन्ध नहीं करते हैं। इसलिए उक्त ग्यारह प्रकृतियों को कम करने से सामान्य की अपेक्षा और मिथ्यात्व मुगस्थान में अपर्याप्त तिर्यंचों और मनुष्यों के १०९ प्रकृतियों का बन्ध माना जाता है।
सारांश यह है कि मनुष्यगति में पर्याप्त मनुष्यों के चौदह गुणस्थान होते हैं और सामान्य से १२० प्रकृतियों का बध हो सकता है। लेकिन अब सिर्फ मनुष्यगति की अपेक्षा बन्धस्वामित्व हो ।
१. मानावरण कर्म के क्षयोपशमविष को लंधिक ।