Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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उक्त ११७ प्रकृतियों में से दूसरे गुणस्थान में दूसरे कर्मग्रन्थ में बताई गई 'रजाइयावरच डाव छिवक नमुच्छि (गाथा ४) इन १६ प्रकृतियों का अन्त पहले गुणस्थान के अन्तिम समय में हो जाने से पर्याप्तमनुष्य १०१ प्रकृतियों का बन्ध करते हैं I
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तीसरे मिश्र गुणस्थान में पर्याप्तमनुष्य पर्याप्तितिर्यच के लिये बताये गये बन्धस्वामित्व के अनुसार दूसरे गुणस्थान की १०१ प्रकृतियों में से देवायु तथा अनन्तानवन्धी कषाय के उदय से धने वाली २५ प्रकृतियों तथा मनुष्यगति-योग्य छह प्रकृतियों कुल ३२ प्रकृतियों को कम करने से ६० प्रकृतियों को बाँधते हैं ।
यद्यपि पर्याप्ततियंच चौथे गुणस्थान में तीसरे गुणस्थान की बंधयोग्य ६६ प्रकृतियों के साथ देवा का बन्ध करने के कारण ३० प्रकृतियों का बन्ध करते हैं । किन्तु पर्याप्तमनुष्य के उक्त ७० प्रकृ सियों के साथ तीर्थरामकर्म का भी बंध हो सकने से ७१ प्रकृतियों का बन्ध कर करते हैं। क्योंकि पर्याप्ततिचों को चौथे गुणस्थान में सम्यक्त्व तो होता है, किन्तु तीर्थकरनामकर्म के बन्धयोग्य अध्यवसायों का अभाव होने से तीर्थकर नामकर्म का बन्ध नहीं कर पाते हैं ।
कर्मग्रन्थ भाग २ (कर्मस्तव) में कहे गये बन्धाधिकार की अपेक्षा पर्याप्तमनुष्य और तिर्यच के तीसरे - मिश्र और चौथे-अविरतसम्यस्दृष्टि गुणस्थान में इस प्रकार की विशेषता है - कर्मस्तव में तीसरे मिश्र गुणस्थान में ७४ और चौथे अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में ७७ प्रकृतियों का बन्ध कहा गया है। परन्तु यहाँ तिर्यच मित्रगुणस्थान में मनुष्यद्विक, औदारिकद्विक और वज्रऋषभनाराच संहनन इन पाँच प्रकृतियों का अबन्ध होने से ६६ प्रकृक्तियों को बांधते हैं और
१. 'सुराज ऋण एगतीस विष्णु मीसे । (तृतीय कर्मग्रन्थ गा०८) ३२ प्रकृतियों के नाम पृष्ठ पर दिये गये हैं ।