Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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तृतीय कम अन्य अतरव, धर्म-अधर्म का विचार करें और जो मन द्वारा गुरुप-दोषादि का विचार, स्मरण कर सके. जो मन के विषय में उत्कृष्ट हो, उन्हें मनुष्य कहते हैं। ___ तिर्यंचों के समान ही मनुष्यों के मुख्यतया पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो भेद हैं। इन दो भेदों में से पर्याप्तमा सामान्य की अपेक्षा १२० प्रकृतियों का बन्ध करता है। इन बन्धयोग्य १२० प्रकृतियों का वर्णन दुसरे कर्मग्रन्थ में विशेष रूप से किया जा चुका है। फिर भी संक्षेप में ज्ञान कर लेने के लिए उनकी संख्या इस प्रकार समझनी चाहिए___ज्ञानाबरण ५, दर्शनावरण ६. वेदरीघ २, मोहनीय २६, आयु ४, नाम ६७, गोत्र २. अन्तराय ५ । र भेदों को मिलाने में कुल १२० प्रकृतियाँ हो जाती हैं।
उक्त १२० प्रकृतियों में से पहले मिथ्यात्व गुणस्थान में पर्याप्ततिर्यों के समान ही पर्याप्तमनुष्य, तीर्थकरनामकर्म और आहारकट्रिक . आहारक शरीर, आहारक अंगोपांग, शून तीन प्रकृतियों का बन्ध नहीं करते हैं । क्योंकि तीर्थ धरमामकर्म का बंध सम्यक्त्ती को और आहारकनिक का बन्ध अनमत्तसंगत को होता है, किन्तु मिथ्याद ष्टि गुणस्थान में जीवों के न तो सम्यक्त्व संभव है और न अप्रमत्तमयम ही। सम्मकत्व चौथे गुणस्थान से पहले तथा अप्रमत्ताराम सातवें गुणस्थान में पहले नहीं हो सकता है । अनः पहले गुणस्थान में पर्याप्त मनुष्य के ११५ प्रकृतियों का बन्ध होता है।
पंच पर घोधिन छथ्वीसमन्नि व चउरो कमेण मतदी। दोणि य पंच य मणि या पाओ प्रवसापडीओ ।।
-मो. कर्मकाष्ट ३५ २. सिस्थय राहारगदुगवलं मिच्छन्मि सतरमयं ।
—भप्राय २६३