Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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तृतीय कर्मग्रन्थ
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पर्याप्ततित्रों के चौथे अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में मिश्र गुणस्थान की बन्धयोग्य ६६ प्रकृतियों के साथ देवायु का बन्ध भी संभव होने में ७० safari at ranना जाता है । क्योंकि तीसरे गुणस्थान में आयु के बन्ध का नियम न होने से आयुकर्म का बन्ध नहीं होता है, किन्तु चौथे गुणस्थान में परभव सम्बन्धी आयु का बंध संभव है । परन्तु चौथे गुणस्थानवर्ती पर्याप्तितिथंच और मनुष्य दोनों देवगति योग्य प्रकृतियों को हैं, मनुष्यगति योग्य प्रकृ तियों को नहीं बाँधते हैं। अतः चौथे गुणस्थान में पर्याप्ततियंचों के वायु का बंध माना जा सकता है।
इस प्रकार तीसरे गुणस्थान की बंधयोग्य ६६ प्रकृतियों में देवायु प्रकृति को मिलाने में पर्याप्त तिर्यचों के चौथे अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में ७० प्रकृतियों का बन्ध होता है ।
के fचवें देशविरत गुणस्थान में पूर्वोक्त ७० प्रकृतियों में से अप्रत्याख्यानावरण कषायचतुष्क - क्रोध, मान, माया, लोभ इन चार प्रकृतियों को कम कर देने पर ६६ प्रकृतियों का बन्ध होता है । अप्रत्याख्यानावरण कषायचतुष्क का बन्ध पाँचवें और उसके आगे के गुणस्थानों में नहीं होता है। क्योंकि यथायोग्य कषाय का उदय तथायोग्य कषाय के बन्ध का कारण है | किन्तु पनि गुणस्थान में अप्रत्यास्थानावरण कषायचतुष्क का उदय नहीं होता है, अत: उनका यहाँ बन्ध भी नहीं हो सकता है। इनका उदय पहले से लेकर चौथे गुणस्थान तक होता है, अतः यहाँ तक ही बन्ध होता है । इसलिए अप्रत्याख्यानावरण कषायचतुष्क का बन्ध नहीं पर्याप्ततिचों के ६६ प्रकृतियों का बंध पाँचवें गणस्थान में माना जाता है ।
सारांश यह है कि पर्याप्ततिर्यों के पहले मिथ्यात्व गुणस्थान में बन्धयोग्य ११७ प्रकृतियों में से मिथ्यात्व के उदय से बँधने वाली नरकत्रिक आदि सोलह प्रकृतियों को कम करने से दूसरे सास्वादन गुणस्थान में १०१ प्रकृतियों का तथा देवायु और अनन्ताgrat