Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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शाधस्वामित्व
में से अनन्तानुबन्धी आदि चतुष्क २४ प्रकृतियों को कम करके और मनुष्यधिक एवं उच्चमोत्र इन तीन प्रकृतियों को मिलाने से मिश्रद्विक गुणस्थान में ७ प्रकृतियों का बन्ध होता है । तिर्यंचगति में पर्याप्त तिर्यन तीर्थकरनामकर्म और आहारकद्विक मेशिन सामान्य ने सपा जिम्मान गुमायार में ११७ प्रकृतियों को बांधते है। विशेषाय-इन दो गाथाओं में सातवें नरक के नारकों में सामान्य और गुणस्थानों की अपेक्षा में एवं तिर्यंचति में पर्याप्ततिर्यचों के बन्धस्वामित्व का कथन किया गया है।
नरकगति में सामान्य में १०१ प्रकृतियाँ बन्धयोग्य है। उनमें से क्षेत्रगत प्रभाव के कारण तीर्थङ्करनामकर्म के बन्धयोग्य तथाप्रकार के अध्यवसायों का अभाव होने से सातव नरक के नारक तीर्थकरनामकर्म का बन्ध नहीं करते हैं तथा मनुष्यायु का छठे नरक तक ही बन्ध हो सकता है और सात व सरक की अपेक्षा मनुष्यायु उत्कृष्ट पुण्य प्रकृति है । अतः इसका बन्ध उत्कृष्ट अध्यकसायों के होने पर हो सकता है। इसलिए सातवें नरक के नारकों को मनुष्यायु का बन्ध नहीं होता है । __इस प्रकार नरकगति में सामान्य से बन्धयो १०५ प्रकृतियों में से तीर्थकरनामकर्म और मनुष्यायु इन दो प्रकृतियों को कम करने से सातथे नरक में ६६ प्रकृतियों का बन्ध माना जाता है । ___सातवें नरक में जो हर प्रकृतियाँ बाँधने योग्य बतलाई हैं. उनमें से उसी नरक के पहले मिथ्यात्व गुणस्थानवी नारक मनुष्पद्विका-- मनुष्यगति और मनुष्यानुपूर्वी तथा उच्च गोत्र.इन तीन प्रकृतियों को तथाविध विशुद्धि के अभाव में नहीं बाँचते। क्योंकि सातवें नरक
१ छोति म मणुआउ।
कागो कर्मकाण्ड १०६