Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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तृतीय कर्मग्रन्थ
पंकप्रभा आदि इन तीन नरकों में सामान्य और विशेष रूप में पहले गुणस्थान में १००, दूसरे और तीसरे गुणस्थान में रत्नप्रभा आदि तीन नरकों के समान क्रमशः ६६ और ७० प्रकृतियों और चौथे गुणस्थान में सम्यक्त्व प्राप्ति होने पर भी क्षेत्र के प्रभाव से और तथाप्रकार के asaara का अभाव होने से तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध न होने से ७१ प्रकृतियों का बन्ध हो सकता है ।
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सारांस यह है कि नरकगति में तीसरे गुणस्थान में ७० और ate गुणस्थान में ७२ प्रकृतियों का बन्ध होता है और गुणस्थानों की अपेक्षा कहे गये बन्धस्वामित्व के समान रत्नप्रभा आदि तीन नरकों में भी समझना चाहिए। लेकिन पंकप्रभा आदि तीन नरकों में तीर्थङ्करनामकर्म का बन्ध न होने में सामान्य और विशेष रूप में पहले गुणस्थान में १००, दूसरे में ६६. तीसरे में 30 और चौथे में ७१ प्रकृतियों का बन्ध होता है ।
इस प्रकार से नरकगति में पहले से लेकर छठे नरक तक के जीवों के स्वामित्व का कथन करने के बाद अब आगे की दो गाथाओं में सात नरक तथा तिर्यच गति में पर्याप्त तिर्थंदों के बन्धस्वामित्व को कहते हैं
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अणि मआज आहे सलमिए नरतुतुच्च विणु मिच्छे। इन नवई सासणे तिरिआज नपुंसकउवज्जं ॥ ६ ॥ अणचजवीसविरहिया सनरगुच्चा यसरि मोसदुगे । सतरसउ ओहि मिछे पजतिरिया त्रिणु जिणाहारं ॥ ७ ॥
गाथार्थ सातवें नरक में सामान्य रूप से तीर्थकुरनामकर्म और मनुष्यासु का बन्ध नहीं होता है तथा मनुष्यद्विक और उच्च गोत्र के बिना शेष प्रकृतियों का मिथ्यात्व गुणस्थान में बन्ध होता है। सास्वादन गुणस्थान में तिर्यंचायु और नपुंसकचतुष्क के बिना ६१ प्रकृतियों का बन्ध होता है तथा इन ९१ प्रकृतियों